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नीतीश का मोदी प्लान क्या है

Edited By ,Updated: 08 Sep, 2022 06:00 AM

what is nitish s modi plan

अचानक से सत्ता पक्ष और विपक्ष की हलचल बढ़ गई है। ज्यादा हलचल विपक्ष के खेमें में हो रही है और सत्ता पक्ष उसका जवाब देने में लगा है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा शुरू हो गई है। नीतीश

अचानक से सत्ता पक्ष और विपक्ष की हलचल बढ़ गई है। ज्यादा हलचल विपक्ष के खेमें में हो रही है और सत्ता पक्ष उसका जवाब देने में लगा है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा शुरू हो गई है। नीतीश कुमार की दिल्ली यात्रा बेहद व्यस्त रही है। केजरीवाल की इंडिया को नंबर वन बनाने की यात्रा भी शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की राज्यों में यात्रा के फेरे बढ़ गए हैं। 

ऐसा लग रहा है मानो अगले 2-3 महीनों में चुनाव आयोग आम चुनाव की घोषणा करने वाला है जबकि यह चुनाव 18 महीने दूर हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव से 3 महीने पहले विपक्ष कथित रूप से लामबंद होना शुरू हुआ था लेकिन लगाम किसके हाथों में हो इस पर लामबंदी नहीं हो सकी। इस बार नीतीश कुमार बार-बार कह रहे हैं कि उनका प्रधानमंत्री बनने का कोई इरादा नहीं है। वह तो सिर्फ विपक्ष में एकता चाहते हैं। एकता के समान बिंदुओं की तलाश ही हो रही है। 

शरद पवार ने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम का सुझाव दिया है। सीताराम येचुरी, के.सी.आर, अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन, स्टालिन सभी कह रहे हैं कि विपक्ष राष्ट्रीय मुद्दों पर कम से कम एक स्वर में बयान देता तो नजर आए। वैसे विपक्ष को एक सूत्र में महंगाई, बेरोजगारी, उग्र हिदुत्व, कट्टर राष्ट्रवाद से ज्यादा जांच एजैंसियों की दादागिरी ज्यादा मजबूती से बांधने का काम कर रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि नीतीश कुमार के पास क्या कोई प्लान है या वह विपक्ष को टटोलने के बाद प्रधानमंत्री पद की दावेदारी का इक्का फैंक सकते हैं। 

नीतीश कुमार को देख कर शे’र याद आता है। लाख दुश्मनी करो मगर यह गुंजाइश रखना, फिर कभी दोस्ती हो जाए तो शॄमदा न हो। दिल्ली दौरे के बाद नीतीश कुमार कम से कम इस बात के लिए आश्वस्त हो सकते हैं कि पुराने समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने उन्हें शॄमदा करने वाला बयान नहीं दिया है । नीतीश का मकसद भी यही था कि अन्य दल उनकी पहल के साथ हैं या नहीं, साथ हैं तो क्या नीतीश की स्वीकार्यता है या नहीं, स्वीकार्यता है तो क्या नीतीश को पुल बनने की जिम्मेदारी देने को तैयार हैं कि नहीं। 

सभी सवालों का जवाब नीतीश को हां के रूप में ही मिला है। सिर्फ अरविंद केजरीवाल को छोड़कर जो आसानी से खुलते नहीं हैं। वैसे कुछ लोगों का कहना है कि केजरीवाल का लक्ष्य 2024 नहीं हो कर 2029 है लिहाजा उन्हें नीतीश कुमार की गलबहियां करने की जरूरत है और न ही हाथ छिटकने की ही जरूरत है। कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, यह नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो। वैसे नीतीश कुमार को राहुल गांधी का साथ मिला है। राहुल की कांग्रेस बिहार में नीतीश की सत्ता में शामिल है। वैसे राहुल गांधी भी नीतीश कुमार की तरह खुद को रिइनवैंट करने में लगे हैं। नीतीश जहां नेताओं के दर पर जा रहे हैं वहीं राहुल गांधी जनता के दरवाजे खटखटाने निकले हैं। गांव-गांव, पांव-पांव।

बताया जा रहा है कि 150 दिनों की यात्रा के दौरान बीच में कहीं राहुल गांधी के साथ नीतीश कुमार भी सड़क नापते नजर आएंगे। धार्मिक यात्राएं अगर मोक्ष के लिए निर्वाण के लिए होती हैं तो राजनीतिक यात्राएं नेताओं और दलों को चौराहे के दिशाभ्रम से निकाल कर रास्ते पर लाने का काम करती हैं। 1983 में चंद्रशेखर यात्रा नहीं करते तो शायद प्रधानमंत्री भी नहीं बन पाते। 1990 में अडवानी रथ यात्रा नहीं करते तो शायद भाजपा आज सत्ता में नहीं होती। 

माओ का चीन में 1934 में लांग मार्च न हुआ होता तो चीन में कम्युनिस्टों का शासन भी नहीं होता। यही बात क्या राहुल गांधी की यात्रा के लिए कही जा सकती है इस बात के लिए किसी बड़े चुनावी नतीजे का इंतजार करना होगा। लेकिन नीतीश कुमार की पटना से दिल्ली की हवाई यात्रा जरूर बड़े संकेत दे रही है। पहला संकेत, विपक्ष समझ रहा है कि 2024 में मोदी को न निपटाया या सिमटाया तो खुद का वजूद सिमटना या निपटना तय है। दूसरा संकेत, विपक्ष मान कर चल रहा है कि बहुत हुआ अब इस हिमालय से गंगा निकलनी ही चाहिए। 

तीसरा संकेत, गंगा के लिए नीतीश अगर भागीरथी मुनि बनना चाहते हैं किसी को ऐतराज भी नहीं है। चौथा संकेत, प्रधानमंत्री कौन होगा इस भगवा जाल में फंसना नहीं है। 5वां संकेत, हॉकी और फुटबॉल की मैन टू मैम मार्किंग की तरह लोकसभा सीट-टू-सीट या राज्य टू राज्य मार्किंग नई रणनीति हो सकती है। पांचवां संकेत तो पी.के. ने भी दिया था। उनका कहना था कि कांग्रेस को भाजपा से उन लगभग 200 सीटों पर लडऩा चाहिए जहां उसका भाजपा से सीधा मुकाबला होता है। बाकी सीटों की तरफ झांकना भी नहीं चाहिए। राहुल गांधी को यह बात समझ में आ रही है। लेकिन केजरीवाल जैसों का क्या करें जो गोवा, उत्तराखंड के बाद गुजरात, हिमाचल प्रदेश में रायता फैलाने में लगे हैं। 

यहां नीतीश कुमार कोई ऐसा फार्मूला बना सकते हैं कि राज्यों के विधानसभा चुनाव भले ही आपस में लड़े जाएं लेकिन आम चुनाव में जहां जो भारी है वहां सिर्फ वही लड़े। वैसे भी आजकल कहा जाता है कि राज्य की जनता विधानसभा चुनाव में अलग तरह से वोट करती है और आम चुनाव में अलग तरह से। एक दूसरा फार्मूला हो सकता है कि सूबों के सरदारों को आजादी दी जाए कि वह खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार मानते हुए पूरे दमखम से चुनाव लड़े  इससे क्षेत्रीय अस्मिता को भुनाया जा सकेगा। 

राज्य की जनता अपने अपने ममता, स्टालिन, के.सी.आर, जगन मोहन रैड्डी, सोरेन, नवीन पटनायक सरीखे सरदारों को सभी सीटें दिलाने के लिए जोर लगा देगी। नतीजे आएं तो सबसे ज्यादा सीटों वाले पहले 2 राज्य मिलकर तय कर लें कि प्रधानमंत्री के रूप में किसका नाम आगे करना है। इस फार्मूले में कई किंतु परंतु, अगर मगर हैं लेकिन सियासत आखिर संभावनाओं का ही खेल होती है।-विजय विद्रोही

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