किशन पटनायक होने का मतलब

Edited By ,Updated: 25 Sep, 2024 05:19 AM

what it means to be kishan patnaik

चुनाव परिणाम वाले दिन एक इंटरव्यू चल रहा था। अचानक चुनावी चर्चा को रोक कर सौरभ द्विवेदी ने मुझसे पूछा, ‘‘अच्छा, आप अक्सर अपने गुरु किशन पटनायक की बात करते हैं। हमारे दर्शकों को उनके बारे में कुछ बताइए।’’ मैं  इस सवाल के लिए तैयार नहीं था।

चुनाव परिणाम वाले दिन एक इंटरव्यू चल रहा था। अचानक चुनावी चर्चा को रोक कर सौरभ द्विवेदी ने मुझसे पूछा, ‘‘अच्छा, आप अक्सर अपने गुरु किशन पटनायक की बात करते हैं। हमारे दर्शकों को उनके बारे में कुछ बताइए।’’ मैं  इस सवाल के लिए तैयार नहीं था। उस समय जो बन सका वह कह दिया लेकिन तब से यह सवाल लगातार मेरे भीतर चल रहा है- किशनजी का परिचय कैसे दूं? कोई साफ जवाब नहीं आता। लेकिन इस 27 सितम्बर को उनकी 20वीं बरसी पर एक कोशिश करना तो बनता है। 

किशन पटनायक (1930-2004) का सबसे आसान परिचय यह होगा कि वह एक राजनेता, समाजवादी नेता, पूर्व सांसद और वैकल्पिक राजनीति के सूत्रधार थे। युवावस्था में ही समाजवादी आंदोलन से जुड़े, महज 32 वर्ष की आयु में ओडिशा के संबलपुर क्षेत्र से लोकसभा सदस्य चुने गए, समाजवादी आंदोलन के बिखराव के बाद लोहिया विचार मंच की स्थापना की, फिर 1980 में गैर दलीय राजनीतिक औजार के रूप में समता संगठन बनाया और फिर 1995 में वैकल्पिक राजनीति के वाहक एक राजनीतिक दल ‘समाजवादी जन परिषद’ की स्थापना की। 

जवानी में ही संसद सदस्य बनने के बाद भी उन्होंने जीवन पर्यंत कोई संपत्ति अर्जन नहीं किया, आर्थिक तंगी के बावजूद  60 साल की आयु तक पूर्व सांसद की पैंशन भी नहीं ली, दिल्ली में दूसरे सांसदों के सर्वैंट क्वार्टर में रहे, अपनी जीवनसंगिनी और स्कूल अध्यापिका वाणी मंजरी दास के वेतन में गुजारा किया, न परिवार का  विस्तार किया न ही बैंक बैलैंस रखा। राजनीति की दुनिया ने उन्हें ऐसे आदर्शवादी संत के रूप में देखा, जो मुख्य धारा की राजनीति में असफल हुआ। न उन्होंने फिर कभी चुनाव जीता, न उनके बनाए दल को चुनावी सफलता मिली। 

राजनीति की दुनिया अगर किशनजी की किसी सफलता को याद करेगी तो एक गुरु के रूप में। बिहार में जे.पी. आंदोलन के समय से किशनजी के नेतृत्व में नीतीश कुमार, शिवानंद तिवारी और रघुपति जैसे अनेक युवजन राजनीति में आए और कालांतर में मुख्यधारा की राजनीति से जुड़े। समता संगठन के जरिए राकेश सिन्हा,सुनील, स्वाति, सोमनाथ त्रिपाठी, जसबीर सिंह और विजय प्रताप जैसे आदर्शवादी राजनीतिक कार्यकत्र्ता जनआंदोलनों को मजबूत करने और उनके राजनीतिकरण के अभियान में जुड़े। इनके अलावा देश भर में न जाने कितने राजनीतिक कार्यकत्र्ता, आंदोलनकर्मी, सामाजिक कार्यकत्र्ता, बुद्धिजीवी, पत्रकार और लोक सेवक मिलते हैं, जिनके जीवन की दिशा किशन जी के सम्पर्क में आकर बदल गई। उस लंबी फेहरिस्त में इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल है। 

किशन पटनायक आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन परंपरा की शायद अंतिम कड़ी थे। उनके चिंतन का प्रस्थान बिंदू बेशक लोहिया है लेकिन उन्हें केवल लोहियावादी या समाजवादी ङ्क्षचतक कहना सही नहीं होगा। दरअसल 20वीं सदी के भारत में राजनीतिक दर्शन की दो अलग-अलग धाराएं रही हैं- समता मूलक धारा और देशज विचार की धारा। किशन पटनायक इन दोनों धाराओं के बीच सेतु थे, जिन्होंने इन विचार परंपराओं को 21वीं सदी के लिए प्रासंगिक बनाया। उन्होंने जीवन भर लेखन को अपने राजनीतिक कर्म का हिस्सा बनाया। राम मनोहर लोहिया की पत्रिका ‘मैनकाइंड’ के संपादन से शुरू कर किशन जी ने पहले ‘चौरंगी वार्ता’ और बाद में ‘सामयिक वार्ता’ पत्रिका का संपादन किया। उनके लेख अनेक पुस्तकों के रूप में संग्रहित हैं- ‘विकल्प नहीं है दुनिया’, ‘भारत शूद्रों का होगा’, ‘किसान आंदोलन: दशा और दिशा’ और ‘बदलाव की चुनौती’। अपने लेखन, भाषणों और संवाद के जरिए किशनजी ने समतामूलक वैचारिक परंपरा में पर्यावरण के सवाल और विस्थापन की ङ्क्षचता के लिए जगह बनाई, असम और उत्तर बंगाल जैसे हाशिए के इलाके के मूल निवासी की चिंता को समझा, जाति और आरक्षण के सवाल पर समाजवादी आग्रह को पैना किया, राष्ट्रवाद की सकारात्मक ऊर्जा को रेखांकित किया तथा लोहिया की वैचारिक परंपरा का गांधी और अम्बेडकर की विरासत से संवाद स्थापित किया। 

उन्हें जानने वाले किशनजी को एक असाधारण इंसान के रूप में याद रखेंगे जो भगवदगीता वाली स्थितप्रज्ञ की अवधारणा पर खरा उतरता था। न दुख में त्रस्त, न सुख में बम-बम। सफलता-असफलता से निरपेक्ष। आत्मश्लाघा से कोसों दूर, अपने इर्द-गिर्द चापलूसों के दरबार से सख्त परहेज। हर व्यक्ति को सम्मान, हर बच्चे में रुचि, हर महिला को मान। अपनी आलोचना सुनने और उससे सीखने का माद्दा। राजनीति में रहने के बावजूद सहज शालीनता और गहरा संकोच। अपने लिए कम से कम जगह घेरने का आग्रह। सच्चाई उनके जीवन के हर पक्ष को पारिभाषित करती थी। उनकी उपस्थिति में सच न बोलना बहुत कठिन काम था। उनके साथ रहना सही मायने में एक सत्संग था, सत्य का संग। आने वाली पीढिय़ों की बात तो छोड़ दीजिए, आज भी नए लोगों को यकीन नहीं होता कि ऐसा व्यक्ति भारत की राजनीति में बीस साल पहले तक मौजूद था। 

यह सब परिचय जरूरी हैं। लेकिन अधूरे हैं चूंकि ये सब परिचय कुछ खांचों में बंधे हैं- नेता बनाम साधु, कार्यकत्र्ता बनाम चिंतक, सत्ता बनाम समाज। किशन पटनायक भारत के सार्वजनिक जीवन के उस युग की याद दिलाते हैं, जिसमें एक राजनेता और चिंतक में फांक नहीं थी। राजनीति विचार से दिशा लेती थी और विचार राजनीति से गति पाते थे। किशन जी को याद करना हमारी सभ्यता में साधु की भूमिका को  याद करना है जिसका काम राजा को सच का आइना दिखाना था। किशन जी हमें उस मर्यादा की कील की याद दिलाते हैं, जो हमारी नजर से ओझल रहती है लेकिन जिस कील ने सदियों से हमारी सभ्यता की चौखट को खड़ा रखा है। किशन पटनायक को याद करना उस भविष्य को जिंदा रखना है, जहां राजनीति शुभ को सच में बदलने का कर्मयोग है।-योगेन्द्र यादव
 

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