जाएं तो जाएं कहां

Edited By ,Updated: 14 Oct, 2024 05:59 AM

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अच्छा स्वास्थ्य एक अमूल्य पूंजी है जिसकी तुलना किसी भी अन्य पदार्थ से नहीं की जा सकती। आरोग्यता कायम रखने हेतु स्वस्थ जीवनशैली अपनाना जितना अनिवार्य है, उतना ही आवश्यक है चुनौतियों के रूप में प्रकट होने वाली आधि-व्याधियों का समय रहते सही उपचार होना।

अच्छा स्वास्थ्य एक अमूल्य पूंजी है जिसकी तुलना किसी भी अन्य पदार्थ से नहीं की जा सकती। आरोग्यता कायम रखने हेतु स्वस्थ जीवनशैली अपनाना जितना अनिवार्य है, उतना ही आवश्यक है चुनौतियों के रूप में प्रकट होने वाली आधि-व्याधियों का समय रहते सही उपचार होना। इस संदर्भ में निजी उपचार केंद्रों की बात करें तो भारी-भरकम फीस चुकता कर इलाज करवाना हरेकके बस की बात नहीं। सामान्य अथवा बामुश्किल 2 वक्त  की रोटी कमाने वाले निम्न वर्ग की एकमात्र उम्मीद सरकारी स्वास्थ्य केंद्र ही हैं, जहां मुफ्त अथवा सस्ती दरों पर उपचार लाभ प्राप्त हो पाए। एकबड़ी जनसंख्या की दुविधा भांपते हुए यद्यपि देश के सभी भागों में विभिन्न स्तरों पर सरकारी उपचार केंद्रों की स्थापना की गई है तथापि उद्देश्य की सार्थकता खंगालने के ध्येय से व्यवस्थात्मकढांचे पर दृष्टिपात करें तो समुचित प्रबंधन के नाम पर केवल मुंह चिढ़ाते नजर आएंगे। 

उदाहरणत: जुलाई माह से शुरूआत करें तो लाडनूं (राजस्थान)स्थित राजकीय चिकित्सालय में व्याप्त कुव्यवस्था ने 3 मासूम बच्चों से उनकी मां छीन ली। चिकित्सालय में भर्ती परिजन से मिलने आई इस महिला को पानी पीते समय वॉटर कूलर में आए करंट ने निगल लिया। अगस्त का उदाहरण लें तो बड़कोट क्षेत्र के बनास गांव (उत्तरकाशी) से ताल्लुक रखने वाली एक प्रसूता को 36 घंटे तक लचर स्वास्थ्य सेवाओं का दंश सहना पड़ा। एंबुलैंस, रिक्शा और बस तक पहुंच बनाने वाले इस दुश्वारियों भरे सफर में जुड़वां बच्चों से जुड़ा पहला प्रसव सड़क पर हुआ तो दूसरा एंबुलैंस में, जिनमें से एक की मौत होने पर, दूसरे की जान बचाने के लिए एक-दो नहीं बल्कि पूरे 4 अस्पतालों तक दौड़ लगानी पड़ी। ठीक इसी प्रकार, सितंबर माह के दौरान वैशाली (बिहार) के सहदेवी स्थित स्वास्थ्य केंद्र में पर्याप्त रोशनी का अभाव होने पर, एक महिला का प्रसव मोबाइल फोन के प्रकाश में करवाना पड़ा। अक्तूबर से संबद्ध एक प्रकरण जांचें तो हजारीबाग (झारखंड) के एक सरकारी मैडीकल कालेज और अस्पताल में लापरवाह डाक्टरों ने एक उपचाराधीन रोगी को ऑक्सीजन का खाली सिलैंडर लगा दिया, जो कथित तौर पर उसकी मृत्यु का सबब बना। 

अक्सर ऐसी अनेकों घटनाएं देखने में आएंगी, जहां जन सामान्य सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की खस्ताहाली का शिकार होता नजर आया। मीडिया द्वारा बार-बार चेताने के बावजूद स्थिति सुधरने का नाम ही नहीं लेती। हालांकि पूर्व राष्ट्रीय नीति में देश की जी.डी.पी. का 2.5' हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च किए जाने संबंधी आश्वासन दिया गया था किंतु वस्तुस्थिति कुछ और ही तस्वीर दर्शाती है। कहीं दवाइयों की अपर्याप्तता तो कहीं मूलभूत सुविधाओं का भारी अकाल। 

चुनिंदा सरकारी स्वास्थ्य केंद्र ही होंगे जहां जांच हेतु आवश्यक अत्याधुनिक मशीनों के साथ इन्हें संचालित करने वाले कारीगरों की उपलब्धता भी संतोषप्रद बनी रहे। विशेषज्ञों की गैर-मौजूदगी में संयंत्रों का पर्याप्त उपयोग न हो पाना अथवा रख-रखाव में बरती लापरवाही के चलते मशीनों का अनुपयोगी बन जाना प्रबंधनात्मक छलावे के अतिरिक्त कुछ नहीं। चिकित्सा केंद्रों पर कार्यरत डाक्टरों की अक्सर नदारद रहने संबंधी शिकायतें आम हैं। बहुतेरे डाक्टर व्यक्ति गत सेवाएं देने को लेकर चॢचत रहते हैं तो कुछ अपने विवादास्पद रवैये के चलते डाक्टरी पेशे की गरिमा को धूूमिल करने का पर्याय बनते हैं। सरकार द्वारा नैशनल हैल्थ मिशन (एन.एच.एम.) के अंतर्गत आने वाले अस्पतालों का निरीक्षण करने के उपरांत कुछ माह पूर्व तैयार की गई रिपोर्ट व्यवस्था को आईना दिखाने के लिए काफी है। केंद्रीय एजैंसी की रिपोर्ट के तहत, देश के करीब 80 फीसदी सरकारी अस्पताल स्वास्थ्य मानकों पर खरे नहीं उतर पाए। 

वर्ष 2007 तथा 2022 में संशोधित भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों के आधार पर सरकार द्वारा देश भर में सरकारी अस्पतालों के संदर्भ में पड़ताल की गई, जिसके तहत विभिन्न राज्यों में चयनित 40,451 अस्पतालों में से 32,362 को 100 में से 80 से कम अंक हासिल हुए, जबकि 17,190 अस्पतालों में अंक संख्या 50 से भी न्यून रही। संसाधनों के मामले में मात्र 8089 अस्पताल ही 80 से अधिक अंक प्राप्त कर पाए। सरकारी अस्पतालों में डाक्टर, नर्स व आवश्यक उपकरणों की भारी कमी पाई गई। 8,000 से अधिक अस्पतालों में 14 प्रकार की जांच सुविधाएं तकउपलब्ध नहीं। बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बावजूद देश के 80 फीसदी अस्पतालों की दशा बेहद खराब निकलना निश्चय ही विडंंबना का विषय है। नियमानुसार, सरकारी अस्पतालों का 60 प्रतिशत खर्च केंद्र सरकार वहन करती है, जबकि शेष 40 प्रतिशत राज्य सरकार के जिम्मे रहता है लेकिन प्राप्त सुविधाओं पर दृष्टि डालें तो उचित व स्तरीय उपचार की गारंटी मिलना तो दूर, सामान्य स्वास्थ्य सेवाएं मिलने को लेकर भी संशयपूर्ण स्थिति बनी रहती है। 

हालांकि विषय को गंभीरतापूर्वक लेते हुए केंद्र सरकार ने गत वर्ष दिसंबर 2026 तक सभी अस्पतालों को बेहतर बनाने की बात कही थी किंतु मौजूदा हालात तो यही बयां करते हैं कि देश के हैल्थ सैक्टर की समूची तस्वीर सरकारी चिकित्सा तंत्र के अंतर्गत सेवारत अधिकारियों/कर्मचारियों के कत्र्तव्यनिष्ठ बने बिना बदलनी संभव नहीं। देश के सर्वांगीण विकास में नागरिकों का योगदान विशेष महत्व रखता है किंतु यह तभी संभव होगा, जब वे शारीरिकव मानसिक तौर पर पूर्णरूपेण स्वस्थ हों। जो चिकित्सीय प्रणाली स्वयंमेव रुग्णावस्था में हो, वहां जाकर उपचार करवाने का विचार भी नि:संदेह घबराहट ही देगा। निजी अस्पताल में इलाज करवाने की सोचें तो जेब कतई इजाजत नहीं देती; ऐसे में अर्थाभाव से जूझते देश के नागरिक रोगग्रस्त होने की दशा में उपचार हेतु जाएं भी तो कहां?-दीपिका अरोड़ा 
 

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