विज्ञापनों के निशाने पर हिन्दू त्यौहार ही क्यों

Edited By ,Updated: 08 Apr, 2023 07:00 AM

why are hindu festivals the target of advertisements

कुछ समय पहले एक मैट्रोमोनियल साइट ने एक विज्ञापन प्रकाशित किया था जो धीरे-धीरे एक महिला की चोट के निशान को प्रकट करता है क्योंकि होली के रंग उसके चेहरे से धुल जाते हैं। क्योंकि लैंगिक हिंसा एक गंभीर मुद्दा है तो क्या इसे होली से जोडऩे की जरूरत है?

कुछ समय पहले एक मैट्रोमोनियल साइट ने एक विज्ञापन प्रकाशित किया था जो धीरे-धीरे एक महिला की चोट के निशान को प्रकट करता है क्योंकि होली के रंग उसके चेहरे से धुल जाते हैं। क्योंकि लैंगिक हिंसा एक गंभीर मुद्दा है तो क्या इसे होली से जोडऩे की जरूरत है? फिर एक चाय कम्पनी के विज्ञापन के उदाहरण पर विचार करें जो कुंभ मेले के दौरान एक हिंदू बेटे को जानबूझ कर अपने बुजुर्ग पिता को पीछे छोड़ते हुए दिखाता है। हालांकि यह सच है कि वृद्धावस्था की उपेक्षा एक महत्वपूर्ण समस्या है तो क्या यह चुनौती केवल हिंदू समुदाय तक ही सीमित है। 

विज्ञापन में दोहरा मापदंड : ये विज्ञापनों के अनगिनत उदाहरणों में से कुछ ही हैं जो उपदेश देने के लिए हिंदू त्यौहारों, प्रतीकों और अनुष्ठानों का प्रयोग करते हैं। एक बीयर कम्पनी का उदाहरण लें जिसने हिंदू विवाहों के भीतर कन्यादान अनुष्ठान को प्रतिगामी के रूप में चित्रित करने वाला एक विज्ञापन चलाया। एक अन्य दवा कम्पनी जिसने हिन्दुओं को दीवाली के दौरान पटाखे न फोड़ने की सलाह दी। रक्षा बंधन के दौरान चमड़े और जन्माष्टमी के दौरान घी से परहेज करने का सुझाव भी कुछ विज्ञापनों ने दिया। कई लोगों के मन में यह सवाल है कि कम्पनियों और संगठनों के पास अपने त्यौहारों के दौरान गैर हिन्दू समुदायों को देने के लिए ज्ञान के शब्द क्यों नहीं हैं? उदाहरण के लिए क्या पशु अधिकार समूह को बकरीद पर बकरियों के वध से बचने का सुझाव नहीं देना चाहिए? 

क्या तीन तलाक और निकाह हलाला के निहितार्थ कन्यादान की कथित पितृसत्ता से ज्यादा गंभीर नहीं है? क्या कुछ समूहों के बीच महिला जननांग विकृति के बारे में बात करने की जरूरत नहीं है। ननों के शोषण के बारे में बात क्यों नहीं की जाती? संगठित धर्मांतरण के सामाजिक प्रभावों के बारे में बात क्यों नहीं की जाती। क्या कोई ऐसी कम्पनी है जो महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए साधन के रूप में हिजाब को छोडऩे की वकालत करेगी। इन दोहरे मानकों को चौंकाने वाला माना जाता है। 

ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं कि पटाखे जानवरों को परेशान करते हैं और वायु प्रदूषण का कारण बनते हैं। शिवरात्रि में शिवलिंग पर दूध चढ़ाना व्यर्थ है इसके बारे में भी कहा जाता है। मकर संक्रांति के दौरान पतंगबाजी से पक्षी मर जाते हैं और होली से पानी की बर्बादी होती है। संभवत: ये सभी वैध ङ्क्षचताएं हैं लेकिन जब मशहूर हस्तियां निजी जैट से यात्रा करती हैं जो ईंधन की खपत करते हैं, सप्ताहांत घरों में गर्म टब और पूल स्थापित करते हैं या भोजन की बर्बादी के साथ पार्टियों की मेजबानी करते हैं तो उनकी सलाह खोखली और पाखंडी लगती है। 

भारत और दुनिया में कई दबाव वाली समस्याएं हैं। अरबों पशुधन जो औद्योगिक खेतों में भीड़ में हैं वे भारी मात्रा में मीथेन का उत्पादन करते हैं जो वायुमंडलीय गर्मी को फैलाने में कार्बन डाईआक्साइड के एक ग्राम के रूप में 84 गुणा शक्तिशाली है। लेकिन क्या हम देखते हैं कि कम्पनियां मीट-फ्री सैलिब्रेशन की वकालत कर रही हैं? जबकि प्राकृतिक क्रिसमस के पेड़ लगभग 16 किलोग्राम ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन पैदा करते हैं। हम क्रिसमस ट्री के पर्यावरणीय प्रभाव के संबंध में कार्पोरेट सक्रियता क्यों नहीं देखते? 

नए साल की पूर्व संध्या पर सिडनी, दुबई, न्यूयार्क, लंदन और दसियों अन्य शहरों में हजारों किलोग्राम पटाखे जलाए जाते हैं लेकिन उन प्रदर्शनों की सराहना की जाती है क्या वायु प्रदूषण दीवाली की तरह चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। हम चाहते हैं कि सभी त्यौहारों को सार्वभौमिक रूप से मनाया जाए लेकिन क्या हमें दीवाली को ‘जश्न-ए-रिवाज’ कहने के लिए एक कपड़ा खुदरा विक्रेता की जरूरत है? 

खुदरा विज्ञापन अग्रणी बर्निस गिब्बन ने प्रसिद्ध रूप से कहा, ‘‘एक अच्छा विज्ञापन एक अच्छे उपदेश की तरह होना चाहिए। ये न केवल पीड़ितों को आराम देना चाहिए बल्कि आराम करने वालों को भी पीड़ित करना चाहिए।’’ लेकिन लियो बर्नेट ने जो कहा उसके साथ उस बयान की तुलना करें। उन्होंने कहा, ‘‘मैं वह हूं जो मानता है कि विज्ञापन का सबसे बड़ा खतरा लोगों को गुमराह करना नहीं है बल्कि उन्हें मौत के घाट उतार देना है।’’ राजनीति, पक्षपात, पितृसत्ता, प्रचार या पूर्वाग्रह को भूल जाइए असली समस्या पोंटीफिकेशन हैं।-अश्विन सांघी

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