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विवादों में क्यों हैं जांच एजैंसियां

Edited By ,Updated: 14 Nov, 2022 04:18 AM

why are investigative agencies in dispute

पिछले कुछ समय से विवादों में घिरी सरकार की दो जांच एजैंसियां प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) और सी.बी.आई. विपक्ष का निशाना बनी हुई हैं। इस विवाद में ताजा मोड़ तब आया जब हाल ही में मुंबई की

पिछले कुछ समय से विवादों में घिरी सरकार की दो जांच एजैंसियां प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) और सी.बी.आई. विपक्ष का निशाना बनी हुई हैं। इस विवाद में ताजा मोड़ तब आया जब हाल ही में मुंबई की एक विशेष अदालत ने पात्रा चॉल पुनर्विकास से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ई.डी. द्वारा शिवसेना के सांसद संजय राऊत की गिरफ्तारी को ‘अवैध’ और ‘निशाना बनाने’ की कार्रवाई करार दिया। इसके साथ ही राऊत की जमानत भी मंजूर कर ली गई। 

अदालत के इस आदेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है। राज्यों में चुनावों के दौरान ऐसे फैसले से विपक्ष को एक और हथियार मिल गया है। विपक्ष अपनी चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाने की तैयारी में है। सारा देश देख रहा है कि पिछले 8 साल में भाजपा के एक भी मंत्री, सांसद या विधायक पर सी.बी.आई. या ई.डी. की निगाह टेढ़ी नहीं हुई। क्या कोई इस बात को मानेगा कि भाजपा के सब नेता दूध के धुले हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं? 

हालांकि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और उसे जांच एजैंसियों के समकक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता, फिर भी यह ध्यान देने योग्य है कि उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता आजम खां के मामले में भारत के चुनाव आयोग को भी अदालत की तीखी टिप्पणी झेलनी पड़ी। जिस तरह चुनाव आयोग ने अति तत्परता से आजम खां की सदस्यता निरस्त कर उपचुनाव की घोषणा भी कर डाली उस सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल खड़ा किया कि ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो आयोग को तुरत-फुरत फैसला लेना पड़ा और आजम खां को अपील करने का भी मौका नहीं मिला। 

न्याय की स्वाभाविक प्रक्रिया है कि आरोपी को भी अपनी बात कहने या फैसले के खिलाफ अपील करने का हक है। जबकि इसी तरह के एक अन्य मामले में मुजफ्फरनगर जिले की खतौली विधानसभा से भाजपा विधायक विक्रम सैनी की सदस्यता रद्द करने में ऐसी फुर्ती नहीं दिखाई गई। एक ही अपराध के दो मापदंड कैसे हो सकते हैं? 

जहां तक जांच एजैंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फैसले के तहत इन जांच एजैंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफी बदलाव लाने वाले निर्देश दिए गए थे। इसी फैसले के तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। 

उद्देश्य था इन संवेदनशील जांच एजैंसियों की अधिकतम स्वायत्तता को सुनिश्चित करना। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सी.बी.आई. की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सी.बी.आई. हिजबुल मुजाहिद्दीन की हवाला के जरिए हो रही दुबई और लंदन से फंडिंग की जांच को 2 बरस से दबा कर बैठी थी। उस पर भारी राजनीतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में कानून बने। 

परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जांच एजैंसियां सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुङ्क्षनदा लोगों के खिलाफ ही कार्रवाई कर रही हैं। इतना ही नहीं इन एजैंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताजा कानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए कानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वह इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जांच एजैंसियां सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 

केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जांच एजैंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रतिष्ठानों के खिलाफ इन एजैंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। पर यहां सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फैसला इन जांच एजैंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दखल के अपना काम कर सके। क्योंकि सी.बी.आई. को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था।

इसी फैसले के तहत इन एजैंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजैंसियां अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सी.वी.सी. के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जांच एजैंसियों की खामियों का उल्लेख करे। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री  अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 8 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमखम के साथ कहते हैं ‘‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’’। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच करने वाली ये एजैंसियां सरकार के दखल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। 

हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 8 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सी.बी.आई. व सी.वी.सी. में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। मामला संजय राऊत का हो, आजम खां का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो या मोरबी पुल की दुर्घटना का हो, जांच एजैंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जनता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जांच एजैंसियां अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रही हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वह किसी भी विचारधारा या राजनीतिक दल का समर्थक क्यों न हो। कानून अपना काम कानून के दायरे में ही करेगा।-विनीत नारायण
 

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