Edited By ,Updated: 23 Sep, 2024 05:36 AM
पिछले कुछ वर्षों से यूरोप की स्थानीय आबादी और बाहर से वहां आकर बसे मुसलमानों के बीच नस्लीय संघर्ष तेज हो गए हैं। ये संघर्ष अब खूनी और विध्वंसकारी भी होने लगे हैं। कई देश अब मुसलमानों पर सख्त पाबंदियां लगा रहे हैं। उन्हें देश से निकालने की मांग उठ...
पिछले कुछ वर्षों से यूरोप की स्थानीय आबादी और बाहर से वहां आकर बसे मुसलमानों के बीच नस्लीय संघर्ष तेज हो गए हैं। ये संघर्ष अब खूनी और विध्वंसकारी भी होने लगे हैं। कई देश अब मुसलमानों पर सख्त पाबंदियां लगा रहे हैं। उन्हें देश से निकालने की मांग उठ रही है। आतंकवादियों की शरणस्थली बनी उनकी मस्जिदें बुलडोजर से ढहाई जा रही हैं। उनके दाढ़ी रखने और बुर्का पहनने पर पाबंदियां लगाई जा रही हैं। यह इसलिए हो रहा है क्योंकि मुसलमान जहां जाकर बसते हैं वहां शरीयत का अपना कानून चलाना चाहते हैं। वह भी ज्यों का त्यों नहीं। वे वहां स्थानीय संस्कृति व धर्म का विरोध करते हैं। अपनी अलग पहचान बना कर रहते हैं। स्थानीय संस्कृति में घुलते-मिलते नहीं है। हालांकि सब मुसलमान एक जैसे नहीं होते। पर जो अतिवादी होते हैं उनका प्रभाव अधिकतर मुसलमानों पर पड़ता है जिससे हर मुसलमान के प्रति नफरत पैदा होने लगती है।
यह बात दूसरी है कि इंगलैंड, फ्रांस, हॉलैंड, पुर्तगाल जैसे देशों में मुसलमानों के खिलाफ माहौल बना है। ये वे देश हैं जिन्होंने पिछली सदी तक अधिकतर दुनिया को गुलाम बनाकर रखा और उन पर अपनी संस्कृति और धर्म थोपा था। पर आज अपने किए वे घोर पाप उन्हें याद नहीं रहे। पर इसका मतलब यह नहीं कि अब मुसलमान भी वही करें जो उनके पूर्वजों के साथ अंग्रेजों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों, डचों ने किया था। क्योंकि आज के संदर्भ में मुसलमानों का आचरण अनेक देशों में वाकई चिंता का कारण बन चुका है। उनकी आक्रामकता और पुरातन धर्मांध सोच आधुनिक जीवन के बिल्कुल विपरीत है। इसलिए समस्या और भी जटिल होती जा रही है। ऐसा नहीं है कि उनके ऐसे कट्टरपंथी आचरण का विरोध उनके विरुद्ध खड़े देशों में ही हो रहा है। खुद मुस्लिम देशों में भी उनके कठमुल्लों की तानाशाही से अमनपसंद आवाम परेशान है। अफगानिस्तान की महिलाओं को लें। उन पर लगीं कठोर पाबंदियों ने इन महिलाओं को मानसिक रूप से कुंठित कर दिया है। वे लगातार मनोरोगों का शिकार हो रही हैं। जब तालिबान ने पिछले महीने सार्वजनिक रूप से महिलाओं की आवाज पर अनिवार्य रूप से प्रतिबंध लगाने वाला एक कानून पेश किया, तो दुनिया हैरान रह गई।
लेकिन जो लोग अफगानिस्तान के शासन के अधीन रहते हैं, उन्हें इस घोषणा से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। एक अंतर्राष्ट्रीय न्यूज एजैंसी से बात करते हुए वहां रहने वाली एक महिला ने बताया कि हर दिन हम एक नए कानून की उम्मीद करते हैं। दुर्भाग्यवश, हर दिन हम महिलाओं के लिए एक नई, पाबंदी की उम्मीद करते हैं। हर दिन हम उम्मीद खो रहे हैं। इस महिला के लिए इस तरह की कार्रवाई अपरिहार्य थी। लेकिन उसके लिए व उसके जैसी अनेक महिलाओं के लिए ऐसे फैसलों के लिए मानसिक रूप से तैयार होने से उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पडऩे वाला हानिकारक प्रभाव कम नहीं हुआ। तालिबान द्वारा यह नया प्रतिबंध महिलाओं को सार्वजनिक रूप से गाने, कविता पढऩे या जोर से पढऩे से भी रोकता है क्योंकि उनकी आवाज को शरीर का ‘अंतरंग’ हिस्सा माना जाता है। अगस्त के अंत में लागू किया जाने वाला यह तालिबानी आदेश स्वतंत्रता पर कई प्रहारों में से एक है।
महिलाओं को अब ‘प्रलोभन’ से बचने के लिए अपने पूरे शरीर को हर समय ऐसे कपड़ों से ढंकना चाहिए जो पतले, छोटे या तंग न हों, जिसमें उनके चेहरे को ढंकना भी शामिल है। जीवित प्राणियों की तस्वीरें प्रकाशित करना और कम्प्यूटर या फोन पर उनकी तस्वीरें या वीडियो देखना भी प्रतिबंधित कर दिया गया है, जिससे अफगानिस्तान के मीडिया आऊटलैट्स का भाग्य गंभीर खतरे में पड़ गया है। महिलाओं की आवाज रिकॉर्ड करना और फिर उन्हें निजी घरों के बाहर प्रसारित करना भी प्रतिबंधित है। इसका मतलब है कि जिन महिलाओं ने अपने इंटरव्यू रिकॉर्ड किए या वॉयस नोट्स के माध्यम से किसी न्यूज एजैंसी के साथ बात करना चुना, तो ऐसा उन्होंने काफी बड़ा जोखिम उठा कर किया। लेकिन कड़ी सजा की संभावना के बावजूद उन्होंने कहा कि वे चुप रहने को तैयार नहीं हैं। इस एजैंसी को दिए गए इंटरव्यू के माध्यम से वे चाहती हैं कि दुनिया अफगानिस्तान में महिला के रूप में जीवन की क्रूर, अंधकारमय सच्चाई को जाने।
इस इंटरव्यू में अधिकतर महिलाओं ने अमानवीय सजा के डर से अपना नाम न देने की इच्छा जाहिर की। परंतु काबुल की सोदाबा नूरई एक अनोखी महिला थीं उन्होंने सजा से बिना डरे अपना नाम लेने की इच्छा की। न्यूज एजैंसी को भेजे एक वॉयस मैसेज में उन्होंने कहा कि महिलाओं के लिए सार्वजनिक रूप से बोलने पर प्रतिबंध के बावजूद मैंने आपसे बात करने का फैसला किया क्योंकि मेरा मानना है कि हमारी कहानियों को सांझा करना और हमारे संघर्षों के बारे में जागरूकता बढ़ाना जरूरी है। खुद पहचान जाहिर करना एक बहुत बड़ा जोखिम है, लेकिन मैं इसे लेने को तैयार हूं क्योंकि चुप्पी केवल हमारी पीड़ा को जारी रखने की अनुमति ही देगी। यह नया कानून बेहद चिंताजनक है और इसने महिलाओं के लिए भय और उत्पीडऩ का माहौल पैदा कर दिया है। यह हमारी स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करता है और यह शिक्षा, कार्य और बुनियादी स्वायत्तता के हमारे अधिकारों को कमजोर करता है।
उल्लेखनीय है कि सोदाबा नूरई को अपनी नौकरी से अगस्त 2021 में हाथ धोना पड़ा। क्योंकि तब वहां तालिबान का राज पुन: स्थापित हुआ और शरीयत कानून के मुताबिक महिलाओं पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए। अब उसे सरकार से प्रति माह 107 डालर के बराबर राशि मिलती है, जिसे वह महिलाओं की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त मानती हैं। इस तालिबानी आदेश से यह दिखाई देता है कि तालिबान द्वारा किसी एक अधिकार का उल्लंघन अन्य अधिकारों के प्रयोग पर किस तरह से घातक प्रभाव डाल सकता है। कुल मिलाकर, तालिबान की नीतियां दमन की एक ऐसी प्रणाली बनाती हैं जो अफगानिस्तान में महिलाओं और लड़कियों के साथ उनके जीवन के लगभग हर पहलू में भेदभाव करती है। इसलिए ऐसे दमनकारी आदेशों के खिलाफ पूरे विश्व को एक होने की आवश्यकता है।-विनीत नारायण