Edited By ,Updated: 04 Nov, 2024 05:03 AM
बीते कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि जब भी कोई त्यौहार आता है तो उसकी स्थिति को लेकर काफी विवाद पैदा हो जाते हैं। इन विवादों को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसी संदर्भ में आज के लेख का विषय कई पाठकों की...
बीते कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि जब भी कोई त्यौहार आता है तो उसकी स्थिति को लेकर काफी विवाद पैदा हो जाते हैं। इन विवादों को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसी संदर्भ में आज के लेख का विषय कई पाठकों की उत्सुकता के कारण चुना है। कई वर्षों के अनुभवी और ज्योतिष व कर्मकांड के विशेषज्ञ आचार्य राजेश पांडेय जी का कहना है कि इसका मुख्य कारण है भारत की भौगोलिक स्थिति। सूर्योदय और सूर्यास्त होने के समय में अंतर होने से तिथियों का घटना-बढऩा हो जाता है। इससे त्यौहार मनाने का समय बदल जाता है।
इसके साथ ही एक अन्य कारण है पंचांग का गणित भेद। कुछ पंचांगकत्र्ता ‘सौर पंचांग’ के अनुसार गणित रचना कर त्यौहारों को स्थापित करते हैं, लेकिन अधिकतर अनन्य पंचांग द्रिक पद्धति से देखे जाते हैं। इसीलिए त्यौहारों में मतेकता नहीं हो पाती। सौर पंचांग एक ऐसा कालदर्शक है, जिसकी तिथियां ऋतु या लगभग समतुल्य रूप से तारों के सापेक्ष सूर्य की स्पष्ट स्थिति को दर्शाती हैं। ग्रेगोरी पंचांग, जिसे विश्व में व्यापक रूप से एक मानक के रूप में स्वीकार किया गया है, सौर कैलेंडर का एक उदाहरण है। पंचांग के अन्य मुख्य प्रकार चन्द्र पंचांग और चन्द्रा-सौर पंचांग हैं, जिनके महीने चंद्रकला के चक्रों के अनुरूप होते हैं। ग्रेगोरियन कैलेंडर के महीने चन्द्रमा के चरण चक्र के अनुरूप नहीं होते।
संप्रदायों में विभिन्नता या जिद्द के कारण भी त्यौहारों की तिथि में अंतर आने लगे हैं। एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय की तिथि से अक्सर अलग ही तिथि की घोषणा कर देता है और उस संप्रदाय को मानने वाले आंख मूंद कर उसका पालन करते हैं। इसके साथ ही संप्रदायों में धृष्टता होना भी एक कारण माना गया है। कई मठ-मंदिर आदि के मानने वाले इतने कट्टर होते हैं कि वे अपने मठाधीशों के फरमान के अनुसार ही त्यौहारों को मनाने की ठान लेते हैं। फिर वह चाहे पंचांग आधारित हो या स्वयंभू सद्गुुरुओं या जगद्गुरुओं की सुविधानुसार हो, उसी का पालन किया जाता है।
इन सबसे हट कर एक और अहम कारण है सोशल मीडिया पर चलने वाला अधपका ‘ज्ञान’, जिसने तिथि विवाद की आग में घी डालने का काम किया है। अधपके ज्ञान को इस कदर फॉरवर्ड किया जाता है कि मानो वही वास्तविक और शास्त्र आधारित तथ्य हो। इतना ही नहीं, एक घर-परिवार में भी इस सोशल मीडिया की महामारी ने ऐसा असर किया है कि बाप-बेटे में ही विवाद उत्पन्न हो चले हैं।
जबकि इस विवाद और ऐसे अन्य विषयों पर विवाद पैदा होने के पीछे ‘भेड़-चाल’ प्रवृत्ति एक मूल कारण है। किसी भी स्थिति में अधपके ज्ञान और संदेश को सत्य मान लेना नासमझी ही कहलाती है। वहीं यदि हम तथ्यों पर आधारित प्रमाणों को मानें तो अधपके ज्ञान से बच सकते हैं।
तिथियों के विवाद को लेकर विद्वानों का मानना है कि सौर पंचांग को मानने वाले इस बात पर जोर देते हैं कि जिस रात्रि में दीपावली मिलती है वे उसी के अनुसार दीपावली मनाएंगे। वहीं द्रिक पद्धति और धर्म शास्त्र के अनुसार जिस तिथि में सूर्योदय हुआ है और उसी तिथि में सूर्यास्त हुआ है तो वह तिथि संपूर्ण मानी जाती है। परंतु जहां पर दो अमावस्या पड़ रहीं हों, तो धर्मशास्त्र के अनुसार परे विग्राहिया का पालन करना चाहिए। यदि दो अमावस्या प्रदोष को स्थापित हो रही हैं तो प्रथम दिवस की अमावस्या को छोड़ कर दूसरे दिन की अमावस्या को ही मानना चाहिए।
दीपावली पितरों के स्वर्ग प्रस्थान का भी पर्व है और हम दीपक इसलिए प्रज्ज्वलित करते हैं, ताकि पितरों का मार्ग प्रशस्त हो सके। पद्म-पुराण के उत्तर खण्ड में दीपावली का वर्णन है। काॢतक मास के कृष्ण पक्ष में एकादशी से अमावस्या तक दीप जलाने का विशेष उल्लेख किया गया है। इन पांच दिनों में भी अन्तिम दिन को वहां विशेष महत्वपूर्ण माना गया है। इसके महात्म्य में इसे पितृ कर्म मानते हुए कहा गया है कि स्वर्ग में पितर इस दीप-दान से प्रसन्न होते हैं।
काॢर्तिक मास के इन दिनों में सूर्यास्त के बाद रात्रि में घर, गोशाला, देवालय, श्मशान, तालाब, नदी आदि सभी स्थानों पर घी और तिल के तेल से दीप जलाने का महत्व है। ऐसा करने से दीप जलाने वाले के उन पितरों को भी मुक्ति मिलती है, जिन्होंने पापाचरण किया हो या जिनका श्राद्ध उचित ढंग से नहीं हुआ हो। दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली प्रेत-चतुर्दशी उत्तर भारत में व्यापक रूप से मनाई जाती है। वर्षक्रियाकौमुदी में उद्धृत एक कथा के अनुसार, एक धार्मिक व्यक्ति को तीर्थ यात्रा के दौरान पांच प्रेत मिले, जो भयंकर कष्ट में थे। प्रेतों ने उसे बताया कि वे उन घरों में रहते हैं, जहां गंदगी फैली हो, सामान बिखरा हो, झूठे बरतन हों और लोग शोक व गंदगी में डूबे हों। इस कथा का उद्देश्य लोगों को स्वच्छता और सकारात्मक वातावरण बनाए रखने की शिक्षा देना है।
कुल मिलाकर यह कहना सही होगा कि हमारे शास्त्रों में हर त्यौहार के पीछे जो आधार हैं, स्थापित हैं, उन्हें सुविधानुसार तोड़-मरोड़ कर संशोधन करना सही नहीं। इसलिए फिर वह चाहे पंचांग भेद हो या संप्रदाय भेद, इनका समाधान निकालना है तो सभी संप्रदायों और विभिन्न पंचांग पद्धति के मानने वालों को एकजुट हो कर ही इसका हल निकालना होगा, नहीं तो हर वर्ष इसी तरह के विवाद होते रहेंगे। -विनीत नारायण