Edited By ,Updated: 02 Oct, 2024 06:00 AM
हरियाणा विधानसभा चुनाव के तीन संभावित परिणाम हो सकते हैं। पहला- सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ हवा चलेगी और कांग्रेस स्पष्ट बहुमत से सरकार बनाएगी। दूसरा- यह हवा चुनावी आंधी की शक्ल लेगी और कांग्रेस को भारी बहुमत मिलेगा।
हरियाणा विधानसभा चुनाव के तीन संभावित परिणाम हो सकते हैं। पहला- सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ हवा चलेगी और कांग्रेस स्पष्ट बहुमत से सरकार बनाएगी। दूसरा- यह हवा चुनावी आंधी की शक्ल लेगी और कांग्रेस को भारी बहुमत मिलेगा। तीसरा- कांग्रेस के पक्ष में सुनामी आ जाए और भाजपा सहित बाकी दल इनी-गिनी सीटों पर ही सिमट जाएं। यह कोई चुनावी भविष्यवाणी नहीं है। इन तीनों संभावनाओं में से कौन सी सच होगी और किस पार्टी को कितनी सीटें आएंगी, इसका आकलन करने की यहां कोई कोशिश नहीं की गई है। यह तो मात्र राजनीति का सामान्य ज्ञान है, जो प्रदेश में हर व्यक्ति जानता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह चुनाव भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है। पिछले विधानसभा चुनावों की तरह इस बार अभय चौटाला की इनैलो, दुष्यंत चौटाला की जजपा, बसपा या आम आदमी पार्टी और आजाद उम्मीदवारों की बड़ी भूमिका नहीं रहेगी, यह भी हर कोई जानता है कि इस सीधे मुकाबले में कांग्रेस को स्पष्ट बढ़त है।
उपरोक्त तीनों संभावनाओं में जो भी सच हो, यह स्पष्ट है कि तीनों स्थिति में सरकार कांग्रेस की ही बनती दिखाई देती है। हरियाणा का वर्तमान विधानसभा चुनाव उन चुनावों की श्रेणी में आता है, जिनका फैसला चुनाव की घोषणा होने से पहले ही हो चुका होता है। किस पार्टी ने कौन सा उम्मीदवार खड़ा किया, किस पार्टी ने अपने मैनिफैस्टो में क्या कहा और चुनाव प्रचार में क्या रणनीति अपनाई, इससे सीटों की संख्या कुछ ऊपर-नीचे हो सकती है, लेकिन इनसे चुनाव का बुनियादी परिणाम पलटने की संभावना बहुत कम दिखती है। दरअसल इस चुनाव का बुनियादी रुझान कोई एक साल या उससे भी पहले ही तय हो चुका था, जब सत्ता और समाज के बीच खाई बन चुकी थी। सच कहें तो जनता के मोहभंग की शुरुआत भाजपा द्वारा दूसरी सरकार बनाने के साथ ही हो गई थी। भाजपा विरोधी वोट को गोलबंद करने वाली दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी ने जिस तरह पासा पलट कर भाजपा की सरकार बनवाई, उसी से ही जनता के मन में खटास पैदा हो गई थी।
सत्ता और समाज को जोडऩे वाला धागा किसान आंदोलन के दौरान टूट गया। हरियाणा की भाजपा सरकार ने किसान आन्दोलन को रोकने, उसका दमन करने और फिर उसके खिलाफ दुष्प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उधर खेतीहर समाज पूरी तरह से किसान आंदोलन के साथ खड़ा हो गया। अखिर में जब केंद्र सरकार को किसानों के सामने झुकना पड़ा, तो हरियाणा सरकार की इज्जत भी गई और इकबाल भी जाता रहा। यौन शोषण के विरुद्ध महिला पहलवानों के संघर्ष ने सरकार की बची-खुची वैधता भी खत्म कर दी थी। प्रदेश में व्यापक बेरोजगारी तो थी ही, ऊपर से अग्निवीर योजना ने ग्रामीण युवाओं के सपनों पर पानी फेर दिया। यानी किसान, जवान और पहलवान ने मिलकर चुनाव शुरू होने से पहले ही भाजपा को पछाड़ दिया था। इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में ही प्रदेश के बदले हुई राजनीतिक समीकरण की झलक मिल गई थी। पांच साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की कांग्रेस पर 30 प्रतिशत की बढ़त थी, जो इस चुनाव में साफ हो गई। दोनों पाॢटयों को 5-5 सीटें मिलीं और कांग्रेस-‘आप’ गठजोड़ को भाजपा से अधिक वोट आया। फिर भी लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय एजैंडा और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के सहारे भाजपा बुरी हार से बच गई। लेकिन विधानसभा चुनाव में राज्य सरकार की कारगुजारी से बचने का कोई उपाय नहीं है।
मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में भाजपा की पहली सरकार ने फिर भी भ्रष्टाचार कम करने और नौकरियों को योग्यता के अनुसार देने के मामले में कुछ साख कमाई थी, लेकिन दुष्यंत चौटाला के सहयोग से बनी दूसरी सरकार ने भ्रष्टाचार, अहंकार और असंवेदनशीलता की छवि हासिल की। अंतत: भाजपा को मनोहर लाल खट्टर को पदमुक्त करना पड़ा। नए मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने जरूर फुर्ती दिखाई और कई लोकप्रिय घोषणाएं भी कीं, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। जनता अपना मन बना चुकी थी इस पृष्ठभूमि में अपनी कमजोरी को समझते हुए भाजपा नेतृत्व ने टिकट बंटवारे में सख्ती और रणनीति से काम लिया, लेकिन उससे पार्टी में बिखराव बढ़ा है। कांग्रेस के टिकट बंटवारे में भी खूब खींचतान हुई और पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी सामने आई। लेकिन इस बार जमीन पर इससे कोई बड़ा फर्क हुआ हो, ऐसा नहीं दिखता।
दोनों बड़ी पार्टियों ने अपने मैनिफैस्टो जारी कर दिए हैं। भाजपा को भी बेरोजगारी, अग्निवीर और किसानों को एम.एस.पी. जैसे मुद्दों को स्वीकार करना पड़ा है। लेकिन जमीन पर किसी भी मैनिफैस्टो की ज्यादा चर्चा सुनाई नहीं देती। अंत में भाजपा के पास हिंदू-मुसलमान या फिर पैंतीस-एक (यानी जाट और गैर जाट का जातीय ध्रुवीकरण) की चाल बची है। इसका कुछ असर चुङ्क्षनदा सीटों पर पड़ सकता है। लेकिन इस बार यह ध्रुवीकरण पूरे प्रदेश के फैसले को प्रभावित करता दिखाई नहीं पड़ रहा। चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में सबका ध्यान उम्मीदवारों की व्यक्तिगत लोकप्रियता, स्थानीय जाति समीकरणों और चुनाव प्रचार के दाव-पेंच पर है। इससे कुल परिणाम चाहे न बदले, इसका सीटों के आंकड़े पर असर पड़ेगा। आखिरी दौर में जो पार्टी आगे दिखाई देती है, उसे भेड़चाल के वोटों का भी फायदा हो जाता है। अगर भाजपा जाट और गैर जाट ध्रुवीकरण में आंशिक रूप से सफल होती है, तो वह कांग्रेस को सामान्य बहुमत पर रोक सकती है। लेकिन अगर यह रणनीति कामयाब न हो पाए और आखिरी दिनों में कांग्रेस ढील न दिखाए तो वह इस हवा को आंधी या सुनामी में बदल भारी बहुमत भी प्राप्त कर सकती है।-योगेन्द्र यादव