प्रधानमंत्री की ध्यान साधना पर हंगामा क्यों?

Edited By ,Updated: 02 Jun, 2024 05:28 AM

why the uproar over the prime minister s meditation

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कन्याकुमारी के विवेकानंद शिला स्मारक में ध्यान करना जितने बड़े विवाद और बवंडर का विषय बना उसे बिल्कुल स्वाभाविक नहीं माना जा सकता। भारत सहित विश्व समुदाय को प्रेरणा देने वाले विवेकानंद के ध्यान स्थल से जुड़े इस केंद्र पर...

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कन्याकुमारी के विवेकानंद शिला स्मारक में ध्यान करना जितने बड़े विवाद और बवंडर का विषय बना उसे बिल्कुल स्वाभाविक नहीं माना जा सकता। भारत सहित विश्व समुदाय को प्रेरणा देने वाले विवेकानंद के ध्यान स्थल से जुड़े इस केंद्र पर प्रधानमंत्री जाकर ध्यान करते हैं तो इसका संदेश सर्वत्र जाता है और लोगों में भी विवेकानंद के जैसा बनने, विपरीत परिस्थिति में ध्यान करने और स्वयं को नियंत्रित कर देश के लिए काम करने की प्रेरणा मिलती है। हालांकि हमारी राजनीति जहां पहुंच गई है वहां ऐसे विषयों का विरोध होना स्वाभाविक है। 

प्रधानमंत्री ने विवेकानंद शिला स्मारक के जिस ध्यान मंडपम में ध्यान किया, ठीक उसी जगह पर 25, 26 ,27 दिसंबर, 1892 को स्वामी विवेकानंद ने 3 दिनों तक ध्यान साधना किया था। माना जाता है कि वहां से उन्हें विशेष अनुभूति हुई और भारत के भविष्य की कल्पना भी जगी थी जो बाद के उनके भाषणों में संकलित है। विपक्ष ने यद्यपि बुद्धिमत्तापूर्वक कहा कि वे ध्यान साधना का विरोध नहीं कर रहे क्योंकि उन्हें लगता था कि ऐसा करने से भाजपा को चुनावी लाभ हो जाएगा। मुद्दा यह बना दिया जाएगा कि देखो  ये ध्यान साधना यानी सनातन की पद्धतियों के ही विरोधी हैं। इसलिए इसके टी.वी. कवरेज पर आपत्ति व्यक्त की गई। अलग-अलग पार्टियां चुनाव आयोग के पास गईं भी। प्रधानमंत्री या कोई नेता चुनाव प्रचार के बाद या बीच में किसी धर्मस्थल या प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल पर जाए, वहां पूजा, प्रार्थना, ध्यान या अन्य साधना करे उस पर चुनाव आयोग या कोई भी संवैधानिक संस्था कैसे रोक लगा सकती है? 

विपक्ष के नेताओं ने भी पूरे चुनाव में परिश्रम किया है और उन्हें भी ध्यान साधना और शारीरिक, मानसिक संतुलन व शांति के लिए पहले से ऐसी कुछ योजना बनानी चाहिए थी। भारत में अनेक ऐसे धार्मिक साधना स्थल हैं जहां जाकर आप शारीरिक- मानसिक थकान से आध्यात्मिक कृतियों के द्वारा मुक्ति पा सकते हैं। ऐसी जगह भी है जहां जाकर 1-2 दिनों के विश्राम से आपको विशेष शांति और शक्ति मिलती है। अगर विपक्ष के नेताओं में ऐसी दृष्टि नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि प्रधानमंत्री या कोई भी सत्तारुढ़ पार्टी का नेता उस दिशा में न सोचे न करे। राहुल गांधी, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, प्रियंका वाड्रा, अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे, शरद पवार सभी चाहें तो कहीं न कहीं ऐसी साधना कर सकते थे और उन्हें भी टैलीविजन या मीडिया का कवरेज मिलता। 

नेताओं में वाकई ध्यान और साधना की प्रतिस्पर्धा हो तो यह देश और संपूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी होगा। जब आध्यात्मिक दृष्टि से आपके शरीर और मन के बीच संतुलन स्थापित होता है तो उसके साथ सकारात्मक दृष्टि भी विकसित होती है जहां से केवल सबके कल्याण के भाव से ही विचार पैदा हो सकते हैं। विपक्ष के नेता ऐसा कार्यक्रम करने की बजाय अगर विरोध कर रहे हैं तो वे देश में नकारात्मक वातावरण बनाते हैं और उनकी अपनी छवि ही कमजोर होती है। जब 2014 का चुनाव प्रचार समाप्त हुआ तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने शिवाजी के रायगढ़ किले में जाकर ध्यान किया था। शिवाजी हमारे देश में भारतीय संस्कृति और हिंदुत्व की दृष्टि से प्रेरक और आदर्श व्यक्तित्व हैं। शिवाजी जैसे महापुरुष के प्रति अगर विपक्ष के अंदर ऐसा भाव पैदा नहीं होता तो इसके लिए वही दोषी हैं। 

2019 के चुनाव प्रचार की समाप्ति के बाद प्रधानमंत्री उत्तराखंड के केदारनाथ गए थे और वहां उन्होंने गुफा में ध्यान और साधना की। प्रधानमंत्री के जाने के बाद से उस गुफा में ध्यान करने वालों की इतनी संख्या बढ़ी कि लंबे इंतजार के बाद नंबर आता है। विपक्ष के किसी नेता को किसी भी पूजा स्थल, आध्यात्मिक स्थल, प्रेरणा के केंद्र, इबादत स्थल या कहीं जाकर ऐसा कुछ करने से किसी ने रोका नहीं है। उनको इसकी समझ नहीं या राजनीति से परे हटकर वे आध्यात्मिक दृष्टि से कुछ करने का विचार नहीं कर सकते तो यह उनकी समस्या है। यह मान लेना कि इस प्रकार की ध्यान साधना या पूजा-पाठ के मीडिया कवरेज के प्रभाव में आकर पहले से किसी और को मत देने का मन बनाए मतदाता अचानक पलट कर भाजपा को वोट देने लगेंगे उचित नहीं लगता। मतदाताओं के पास भी सही गलत का निर्णय करने का विवेक है। 

अगर विपक्ष इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मतदाताओं को आकर्षित करने की रणनीति मानता है तो उसे भी इसकी काट में रणनीति अपनानी चाहिए। इसके विपरीत जब ये हंगामा करते हैं, चुनाव आयोग जाते हैं तो भाजपा के समर्थकों के साथ-साथ हिंदुत्व को लेकर संवेदनशील रहने वाले मतदाताओं को लगता है कि वाकई विपक्ष सनातन और हिंदुत्व विरोधी है। इसलिए इस व्यवहार को रणनीतिक भूल मानने में भी हर्ज नहीं है। विरोधियों ने प्रधानमंत्री की ध्यान साधना को राजनीतिक मुद्दा बनाने में सर्वाधिक योगदान दिया। अगर इतना तीखा और आक्रामक विरोध नहीं होता तो मुख्य मीडिया और सोशल मीडिया से लेकर जनता के बीच इसकी इतनी चर्चा ही नहीं होती। किसी भी देश का शीर्ष नेता चाहे प्रधानमंत्री हों या राष्ट्रपति ध्यान साधना या अपने आध्यात्मिक कर्मकांड या फिर छुट्टियां मनाने जाएगा तो उसे मीडिया का कवरेज मिलेगा। 

प्रधानमंत्री जब तक वहां रहे तब तक भारत ही नहीं दुनिया भर के भारत में सक्रिय मीडिया और पत्रकारों का जमावड़ा वहां रहा। इसे आप रोक नहीं सकते। लेकिन इनकी समस्या दूसरी है। नेताओं के मन में यह ग्रंथि है कि ऐसा कुछ करेंगे तो हमारा मुस्लिम वोट खिसक सकता है। लंबे समय से नेताओं के द्वारा इस तरह की भूमिका को सैक्युलर विरोधी या पिछड़ेपन की दृष्टि से देखा गया और समाज का मनोविज्ञान इसी अनुसार निर्मित हुआ। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी ऐसा कुछ करते हैं तो एक बहुत बड़े वर्ग को वह सहज और स्वाभाविक भी नहीं लगता। विवेकानंद शिला स्मारक पर जाने वाले या उसकी प्रशंसा करने वाले ज्यादातर नेताओं को शायद यह पता नहीं होगा कि उसके निर्माण के पीछे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुख्य भूमिका थी। 

1963 में स्वामी विवेकानंद के जन्म शताब्दी के समय लोगों ने उस चट्टान के पास एक स्मारक बनाने का निश्चय किया लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। संघ ने अपने उस समय के वरिष्ठ प्रचारक एकनाथ रानाडे को इस काम में लगाया। उन्होंने इसके लिए लोगों को जोड़ा, बैठकें कीं, सभाएं कीं, सरकारों से संपर्क किया, चंदे एकत्र किए और फिर उसका अत्यंत कठिनाई से निर्माण हुआ। उस समय तमिलनाडु के मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम् ने स्मारक में मदद से मना कर दिया। तत्कालीन केंद्रीय संस्कृति मंत्री हुमायूं कबीर ने भी सहयोग से इंकार किया। संघ ने निर्णय कर लिया था और उनके लोग लग गए थे तो वे लगे रहे। सांसदों से भेंट की गई। 300 से ज्यादा सांसदों से हस्ताक्षरित समर्थन लिया गया। फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उसके निर्माण की अनुमति दी। ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ने के लिए 1 रुपया से 5 रुपया का चंदा लिया गया तथा माहौल बनने के बाद राज्य सरकारों ने भी एक लाख का योगदान दिया। 1972 में विवेकानंद केंद्र बना जो वहां अनेक प्रकार के कार्यक्रम करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस तरह की आलोचना केवल लंबे समय से पाले गए और स्वाभाविक दुराग्रह की परिणति होती है। वहीं से ऐसे विरोध पैदा होते हैं जिनका आम जनता पर असर न के बराबर होता है।-अवधेश कुमार 
 

Afghanistan

134/10

20.0

India

181/8

20.0

India win by 47 runs

RR 6.70
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!