Edited By ,Updated: 16 Oct, 2024 05:28 AM
क्या उमर अब्दुल्ला की नई सरकार जम्मू-कश्मीर के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोल पाएगी, जिसका इस प्रदेश को बहुत लंबे वक्त से इंतजार है? 2014 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव और इस चुनाव के बीच प्रदेश का संवैधानिक और राजनीतिक परिदृश्य बदल गया है।
क्या उमर अब्दुल्ला की नई सरकार जम्मू-कश्मीर के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोल पाएगी, जिसका इस प्रदेश को बहुत लंबे वक्त से इंतजार है? 2014 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव और इस चुनाव के बीच प्रदेश का संवैधानिक और राजनीतिक परिदृश्य बदल गया है। जम्मू-कश्मीर अब एक विशेष राज्य की बजाय एक सामान्य राज्य भी नहीं बचा। विशेष दर्जा देने वाला संविधान का अनुच्छेद 370 निरस्त हो चुका है, अब जम्मू-कश्मीर बस एक केंद्र शासित प्रदेश रह गया है। केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में लैफ्टिनैंट गवर्नर को विशेष अधिकार हासिल है।
नए परिसीमन के बाद जम्मू क्षेत्र और कश्मीर घाटी का आंतरिक राजनीतिक संतुलन बदल चुका है। अब जम्मू का वजन कश्मीर के बराबर हो गया है। जम्मू-कश्मीर की परछाईं में गुमनाम और नजरअंदाज रहा लद्दाख अब एक अलग केंद्र प्रशासित प्रदेश बन चुका है, अपनी अलग लड़ाई लड़ रहा है। उधर पाकिस्तान अपनी परेशानियों में उलझा है। कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तान का साथ देने वाली ताकतें चीन की चिंता में पड़ी हैं। इस लिहाज से यह पिछले 6 साल से चले आ रहे राजनीतिक गतिरोध को सुलझाने का एक बड़ा अवसर है।
जम्मू-कश्मीर में हाल ही में संपन्न हुए चुनावों की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि चुनाव शांतिपूर्वक संपन्न हुए, उसमें कश्मीर घाटी समेत सभी इलाकों की जनता की अच्छी भागीदारी हुई और 6 साल के बाद प्रदेश में लोकतांत्रिक सरकार की बहाली हुई। इस चुनाव में जनता ने केन्द्र की सत्तारूढ़ भाजपा और राज्य में नई सरकार संभालने वाली नैशनल कांफ्रैंस गठबंधन दोनों को सबक सिखाए हैं। इस चुनाव में भाजपा की रणनीति यह थी कि जम्मू इलाके में वह एक तरफा जीत हासिल कर ले, जहां सीटों की संख्या बढ़ गई है। उधर कश्मीर घाटी में वोटों और सीटों का बंटवारा हो जाए और काफी सीटें उन दलों को मिल जाएं, जो खुले या छुपे तौर पर भाजपा का साथ दे सकती हैं। ऐसे में भाजपा पहली बार अपने नेतृत्व में जम्मू-कश्मीर में सरकार बना पाएगी। जरूरत पड़े तो राज्यपाल द्वारा नामांकित 5 विधायकों की मदद ली जाएगी।
यह योजना सफल नहीं हुई। जम्मू के हिन्दू इलाके में तो भाजपा को एकतरफा सफलता मिली, लेकिन जम्मू के पहाड़ी और कबायली इलाके में वैसी कामयाबी नहीं मिली। उधर कश्मीर घाटी तमाम गाजे-बाजे के बावजूद भाजपा को अधिकांश सीटों पर उम्मीदवार नहीं मिले, जहां उम्मीदवार मिले, उन्हें वोट नहीं मिले। महबूबा मुफ्ती, राशिद इंजीनियर और सज्जाद लोन सरीखे जिस-जिस पर भाजपा की बी टीम होने की तोहमत लगी, उन संभावित सहयोगियों को कश्मीर घाटी की जनता ने पूरी तरह खारिज कर दिया। सबक ये हैं कि सुरक्षा बलों के सहारे जनता को डराया जा सकता है लेकिन उनका दिल नहीं जीता जा सकता। प्रचारतंत्र के सहारे बाकी देशों को मोहक तस्वीरें दिखाई जा सकती हैं लेकिन स्थानीय जनता को भरमाया नहीं जा सकता।
साथ ही चुनाव जीतने वाली नैशनल कांफ्रैंस गठबंधन के लिए भी जनता के सबक हैं। बेशक कश्मीर घाटी ने पूरी तरह से नैकां को अपना समर्थन दिया है लेकिन चार महीने पहले इसी कश्मीर घाटी में बारामूला संसदीय क्षेत्र की जनता ने खुद उमर अब्दुल्ला को चुनाव में पटखनी दी थी और उनके मुकाबले जेल में बंद राशिद इंजीनियर को पसंद किया था। इन चार महीनों में कश्मीर घाटी की जनता का मन नहीं बदला, बस उनकी उम्मीद का बोझ एक बार फिर नैशनल कांफ्रैंस के कंधे पर आ गया है। यह बोझ बहुत भारी है। सी.एस.डी.एस.-लोकनीति का सर्वेक्षण दिखाता है कि जनता की असल चिंता बेरोजगारी, महंगाई और विकास के मुद्दों की है। इन उम्मीदों को पूरा करना आसान नहीं होगा। यह चुनौती और भी बढ़ जाती है क्योंकि जम्मू क्षेत्र के हिंदू मतदाताओं में नैशनल कांफ्रैंस और कांग्रेस का गठबंधन और खासतौर पर कांग्रेस बिल्कुल असफल हो गई। नई सरकार के सामने यह चुनौती रहेगी कि वह अल्पसंख्यक हिन्दुओं का विश्वास जीते।
नई सरकार की पहली चुनौती जम्मू-कश्मीर के लिए राज्य का दर्जा हासिल करना होगी। इसे केन्द्र सरकार और संसद ही कर सकती है। वैसे इस सवाल पर सब राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की सहमति है। सुप्रीम कोर्ट के सामने केंद्र सरकार यह वायदा भी कर चुकी है। भाजपा ने भी जम्मू-कश्मीर की जनता से यह वायदा किया है। उम्मीद करनी चाहिए कि अब प्रदेश में अपनी मनपसंद सरकार न बनने के बाद भी भाजपा अपने वादे पर कायम रहेगी और बिना किसी देरी या पेंच के राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा, ताकि चुनी हुई सरकार जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप काम कर सके।
अनुच्छेद 370 का मामला ज्यादा पेचीदा है लेकिन उससे मुंह चुराना संभव नहीं। सी.एस.डी.एस.-लोकनीति के सर्वेक्षण ने एक बार फिर इस सच को रेखांकित किया है कि 370 समाप्त करने के दावे से बाकी देश में भाजपा को जो भी समर्थन मिला हो, इस कदम से जम्मू-कश्मीर की जनता ख़ुश नहीं है। सच यह है कि प्रदेश की दो तिहाई जनता (और कश्मीर घाटी में लगभग सभी) 370 की वापसी चाहती है। सच यह भी है कि बदले हुए हालात में और सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे स्वीकार करने के बाद 370 की पुरानी शब्दावली पर जाना न तो संभव है न ही जरूरी। लेकिन यह साफ है कि इस प्रदेश की विशिष्ट स्थिति को देखते हुए इसे एक विशेष दर्जा और कुछ विशेष स्वायत्तता देनी ही होगी।
ध्यान रहे कि भारत के संविधान में अनुच्छेद 371 के तहत ऐसी ही विशेष स्वायत्तता पूर्वोत्तर के सभी राज्यों को मिली हुई है। यही नहीं, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों के कुछ क्षेत्रों को भी अनुच्छेद 371 के तहत विशेषाधिकार प्राप्त है। ऐसे में 370 की जगह 371 के सहारे जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को जमीन और नौकरी संबंधी विशेषाधिकार देना अपरिहार्य है। इस सच को स्वीकार करने के लिए भाजपा को जम्मू-कश्मीर का इस्तेमाल सिर्फ राष्ट्रीय राजनीति के मुहावरे और मोहरे की तरह करने का लालच छोडऩा होगा। यही सच्चा राष्ट्रहित होगा।-योगेन्द्र यादव