क्या तीनों कृषि कानूनों को फिर से लागू किया जाएगा?

Edited By ,Updated: 10 Oct, 2024 05:40 AM

will the three agricultural laws be implemented again

क्या ये कानून भारत के लाखों संघर्षरत किसानों और उपभोक्ताओं के सामने आने वाली गहरी समस्याओं को संबोधित करने का एक खोया हुआ अवसर था?

क्या ये कानून भारत के लाखों संघर्षरत किसानों और उपभोक्ताओं के सामने आने वाली गहरी समस्याओं को संबोधित करने का एक खोया हुआ अवसर था? हाल ही में, भाजपा के एक सांसद ने 3 राष्ट्रीय कृषि कानूनों को फिर से लागू करने की बात कही। विपक्षी दलों की आलोचना का सामना करते हुए, भाजपा के एक प्रवक्ता ने स्पष्ट किया कि ‘उनका बयान पार्टी के विचार का प्रतिनिधित्व नहीं करता है’। मोदी  सरकार इन कानूनों को वापस लाने का इरादा नहीं रखती है। 

वे कानून क्या थे? : सितंबर 2020 में लागू किए गए इन कानूनों में सबसे दूरगामी कानून किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020 था। इसने केंद्र को अंतर-राज्य व्यापार को विनियमित करने की अनुमति दी, जिससे किसान या व्यापारी को व्यापार और वाणिज्य करने की स्वतंत्रता मिली, जबकि व्यापारियों को देश में कहीं भी, यहां तक कि निर्दिष्ट  राज्य ए.पी.एम.सी. (कृषि उपज बाजार समिति) के बाहर भी किसानों से सीधे निर्दिष्ट कृषि वस्तुओं को खरीदने की अनुमति मिली। दूसरा कानून था मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अधिनियम, 2020। इसने किसानों को प्रोसैसर, एग्रीगेटर, बड़े खुदरा विक्रेताओं आदि के साथ ‘निष्पक्ष’ और ‘पारदर्शी’ तरीके से जुडऩे के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान किया। तीसरा कानून आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 था। इसने दालों, अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, प्याज और आलू को इस पुराने कानून के दायरे से बाहर कर दिया। इन कानूनों के लागू होने से लंबे समय तक विरोध प्रदर्शन हुए  जो ज्यादातर पंजाब, हरियाणा और दिल्ली तक ही सीमित थे। 

जनवरी 2021 में, सुप्रीम कोर्ट ने उनके कार्यान्वयन पर रोक लगा दी और गहन समीक्षा करने के लिए एक समिति का गठन किया। 3 महीने की निर्धारित समय सीमा के भीतर प्रस्तुत समिति की रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई। इस बीच, किसानों ने अपना आंदोलन जारी रखा। 19 नवंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें निरस्त करने की घोषणा की।

क्या उनमें कुछ गड़बड़ थी? : लेकिन, सबसे पहले, हमें यह पूछना होगा कि कृषि उपज के विपणन पर मौजूदा कानून किसानों के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं।  महाराष्ट्र के सोलापुर के एक किसान की व्यापक रूप से बताई गई दुर्दशा सब कुछ बयां कर देती है। पिछले साल, उसे सोलापुर मार्कीट यार्ड में एक व्यापारी को 1 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से 512 किलोग्राम प्याज बेचने पर मात्र 2.49 रुपए मिले, कुल बिक्री मूल्य 512 रुपए था; श्रम, तौल, परिवहन और अन्य शुल्कों को घटाने के बाद 509.5 रुपए की कुल राशि हुई, जो 2.5 रुपए थी। स्पष्ट है, यह लाभ नहीं है। इसे प्राप्त करने के लिए, हमें इसमें से 512 किलोग्राम प्याज के उत्पादन की लागत घटानी होगी जिसमें बीज, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई आदि पर होने वाले खर्च शामिल हैं। 

किसान को कम कीमत क्यों मिलती है? : ऐसा इसलिए है क्योंकि वह अपनी उपज केवल राज्य ए.पी.एम.सी. अधिनियम के तहत ‘निॢदष्ट’ मंडी में ही बेच सकता है। मंडी में, कमीशन एजैंटों (वे उपज की नीलामी और डिलीवरी की व्यवस्था करते हैं)के लिए स्थानीय शब्द  और लाइसैंस प्राप्त व्यापारी/खरीदार का बोलबाला है। ये दोनों कम कीमत देकर, अस्वीकार करके, कम तोल करके, भुगतान में देरी करके उसका भरपूर शोषण करते हैं। ए.पी.एम.सी. मंडियां किसानों द्वारा बेची जाने वाली मात्रा का केवल एक अंश ही संभाल सकती हैं। इसलिए, उनमें से अधिकांश को निजी स्थानीय बाजारों में आने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जहां बिक्री कानूनी रूप से प्रतिबंधित है। इन बाजारों में, वे अपनी उपज को औने-पौने दामों पर व्यापारियों को बेच देते हैं। बाद वाले को भ्रष्ट नौकरशाहों और राजनेताओं का आशीर्वाद प्राप्त है (कई मामलों में, वे या उनके रिश्तेदार भी व्यापारियों के रूप में दिखावा करते हैं) और इसलिए, कानून का उल्लंघन करने के लिए किसी भी कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ता है।

यह सही है कि भारतीय खाद्य निगम (एफ.सी.आई.), भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ लिमिटेड  (नेफेड) जैसी राज्य एजैंसियां राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एन.एफ.एस.ए.) के तहत मुफ्त खाद्यान्न वितरण जैसी कल्याणकारी योजनाओं को चलाने के लिए आवश्यक फसलों की मंडियों से खरीद करती हैं। वे केंद्र द्वारा अधिसूचित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) पर खरीदारी करती हैं। लेकिन उनकी खरीद सीमित है। धान और गेहूं को छोड़कर, जहां एजैंसियां किसानों की उपज का केवल 30 प्रतिशत ही खरीदती हैं, अन्य सभी फसलों के लिए उनकी खरीद नगण्य है। फिर भी केवल 6 प्रतिशत किसान जिनमें से अधिकतर बड़े जोत वाले अमीर हैं , सरकारी खरीद का लाभ पाते हैं। 

संक्षेप में, मौजूदा समय में ए.पी.एम.सी. कानूनों के तहत, अधिकांश गरीब किसानों को बेहतर मूल्य मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। वे घोर गरीबी में जीने को मजबूर हैं और भारी कर्ज में डूबे हुए हैं, जिसके कारण आत्महत्याएं भी हो रही हैं। एन.एफ.एस.ए. के तहत 820 मिलियन लोगों को मुफ्त भोजन मिल रहा है, लेकिन इसमें एक बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जो अपनी जरूरतों को बाजार से खरीदते हैं; यहां तक कि एन.एफ.एस.ए. के लाभार्थी भी गेहूं/चावल के अलावा अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए बाजार पर निर्भर हैं। 

किसानों को बेचने के लिए और उपभोक्ताओं को खरीदने के लिए और अधिक विकल्प देना है। यही वह है जो तीनों कानूनों ने करने की कोशिश की है। इन कानूनों ने ए.पी.एम.सी. मंडियों को परेशान किए बिना सभी गैर-ए.पी.एम.सी. प्लेटफार्मों जैसे निजी व्यापारियों, प्रोसैसर, एग्रीगेटर, निर्यातकों आदि पर बिक्री को वैध बनाया। सरकार उन कानूनों के बारे में बात भी नहीं कर पा रही है; पुनरुत्थान की तो बात ही छोडि़ए।-उत्तम गुप्ता

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