क्या ‘वायसराय’ बन जाएंगे उपकुलपति

Edited By ,Updated: 12 Jan, 2025 05:26 AM

will the vice chancellor become the vice chancellor

व्यावहारिक रूप से सभी सरकारें अधिक शक्ति चाहती हैं और खुद को अधिक नियंत्रण और अधिक अधिकार देने के लिए कानून बनाती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि शासकों का मानना है कि वे ही जानते हैं कि देश और लोगों के लिए क्या अच्छा है। कुछ व्यक्तियों में भी यही जटिलता...

व्यावहारिक रूप से सभी सरकारें अधिक शक्ति चाहती हैं और खुद को अधिक नियंत्रण और अधिक अधिकार देने के लिए कानून बनाती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि शासकों का मानना है कि वे ही जानते हैं कि देश और लोगों के लिए क्या अच्छा है। कुछ व्यक्तियों में भी यही जटिलता होती है। इसे ‘उद्धारकत्र्ता’(या मसीहा) जटिलता कहा जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक निर्माण है जो किसी व्यक्ति को यह विश्वास दिलाता है कि उसे सभी समस्याओं को ‘ठीक’ करना चाहिए और लोगों को ‘बचाना’ चाहिए। इसके चरम रूप में यह भ्रम पैदा कर सकता है कि वह जैविक रूप से पैदा नहीं हुआ है, बल्कि ‘भगवान ने मुझे भेजा है’। 

7 जनवरी, 2025 को अखबारों के अंदर के पन्नों पर छपी खबर थी कि यू.जी.सी. ने उपकुलपतियों की नियुक्ति के लिए नियमों में संशोधन किया है। विषय वस्तु विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों की चयन प्रक्रिया थी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) ने मसौदा विनियम जारी किए हैं और टिप्पणियां आमंत्रित की हैं। 

व्यापक-आधारित और कॉलेजियम : वर्तमान में, एक या अधिक विश्वविद्यालयों की स्थापना को अधिकृत करने वाले अधिकांश अधिनियमों में, राज्य के राज्यपाल को कुलाधिपति बनाया जाता है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना करने वाले कुछ अधिनियमों में, राष्ट्रपति विजिटर होते हैं। राज्यपाल, हमेशा, एक लंबे समय से सेवानिवृत्त राजनीतिक नेता या एक प्रतिष्ठित नागरिक होता था। राज्यपाल से संवैधानिक रूप से कार्य करने की अपेक्षा की जाती थी और वह ऐसा करता भी था। वर्तमान विनियमन एक खोज-सह-चयन समिति का प्रावधान करते हैं जिसमें राज्यपाल, राज्य सरकार, विश्वविद्यालय की सीनेट और विश्वविद्यालय के सिंडीकेट में से प्रत्येक का एक नामित व्यक्ति शामिल होगा। खोज-सह-चयन समिति व्यापक-आधारित और लोकतांत्रिक थी। 

हालांकि अंतिम चयन कुलाधिपति/राज्यपाल द्वारा किया जाता था। अतीत में, राज्यपाल आमतौर पर राज्य सरकार की ‘सहायता और सलाह’ पर कार्य करते थे। दुर्भाग्य से, पिछले दशक में उस प्रथा को दफना दिया गया और राज्यपालों ने अपने विवेक से उपकुलपति नियुक्त किए हैं। बदतर के लिए समय बदल गया है। मौजूदा व्यवस्था के तहत राज्यपाल आर.एस.एस./भाजपा की विचारधारा के प्रति वफादारी के लिए पुरस्कृत राजनीतिक नियुक्तियां या भरोसेमंद सेवानिवृत्त सिविल सेवक होते हैं। विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपाल को केंद्र सरकार के वायसराय के रूप में कार्य करने और राज्य सरकार को नियंत्रित करने का निर्देश दिया जाता है। वास्तव में, राज्यों में द्वैध शासन है- निर्वाचित सरकार और अनिर्वाचित राज्यपाल। भारत के संविधान में ‘सहायता और सलाह’ खंड को हवा में उड़ा दिया गया है। 

धीरे-धीरे बढ़ती द्वैध शासन व्यवस्था : राज्यपालों को राज्य सरकार द्वारा विधानसभा में तैयार किए गए अभिभाषण के पूरे या कुछ हिस्सों को पढऩे से इंकार करते हुए देखें। राज्यपाल को सार्वजनिक रूप से राज्य सरकार, खासकर मुख्यमंत्री की आलोचना करते हुए देखें। राज्यपाल को मुख्य सचिव या पुलिस प्रमुख को बुलाते हुए और मुख्यमंत्री को दरकिनार करते हुए उन्हें निर्देश जारी करते हुए देखें। राज्यपाल को जिला प्रशासन की ‘समीक्षा’ करने और जिला अधिकारियों के साथ ‘चर्चा’ करने के लिए राज्य के दौरे पर निकलते हुए देखें। संविधान के प्रावधानों के उल्लंघन में, खासकर विपक्ष शासित राज्यों में द्वैध शासन व्यवस्था अपने पैर पसार रही है। (भाजपा शासित राज्यों के मामले में, राज्य सरकार पूरी तरह से केंद्र सरकार के अधीन है और आमतौर पर एक मंत्री या वरिष्ठ अधिकारी होता है जो प्रधानमंत्री की ‘आंख और कान’ होता है और प्रधानमंत्री के फैसलों को मुख्यमंत्री तक पहुंचाता है।) 

यू.जी.सी. अधिनियम की धारा 22 में कहा गया है कि ‘डिग्री’ का अर्थ यू.जी.सी. द्वारा निॢदष्ट कोई भी डिग्री है और इसे केवल अधिनियम द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय द्वारा ही प्रदान किया जा सकता है। नए मसौदा विनियमन उपकुलपति की खोज-सह-चयन और नियुक्ति का तरीका निर्धारित करते हैं। यह 3-सदस्यीय समिति के माध्यम से होगा जिसमें कुलपति, यू.जी.सी. और विश्वविद्यालय के शीर्ष निकाय (सिंडीकेट/सीनेट/प्रबंधन बोर्ड) में से प्रत्येक का एक नामित व्यक्ति शामिल होगा।समिति 3-5 नामों का एक पैनल तैयार करेगी और कुलपति उनमें से एक को नियुक्त करेंगे। यदि कोई विश्वविद्यालय विनियमनों का उल्लंघन करता है, तो उसे डिग्री कार्यक्रम प्रदान करने या यू.जी.सी. योजनाओं में भाग लेने से रोक दिया जाएगा, यू.जी.सी. अधिनियम के तहत विश्वविद्यालयों की सूची से हटा दिया जाएगा, और अन्य दंडात्मक कार्रवाई के अधीन किया जाएगा। वास्तव में, शैक्षणिक संस्थान ‘विश्वविद्यालय’ नहीं रह जाएगा। ध्यान दें कि उपकुलपति के चयन और नियुक्ति में राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं है। उपकुलपति यू.जी.सी. का वायसराय बन जाएगा, जिसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है और उन्हें हटाया भी जा सकता है। 

विश्वविद्यालयों का राष्ट्रीयकरण: वैचारिक शुद्धता के लिए चुने गए 2 वायसराय विश्वविद्यालय का प्रशासन संभालेंगे-राज्यपाल/कुलपति और उपकुलपति। यदि मसौदा नियम अधिसूचित हो जाते हैं, तो वे राज्य सरकार के अधिकारों का हनन करेंगे, जिसने राज्य के निवासियों के लाभ के लिए विश्वविद्यालय की स्थापना की थी और राज्य के अपने संसाधनों से विश्वविद्यालय को वित्तपोषित किया था। मसौदा नियम वस्तुत: विश्वविद्यालयों का राष्ट्रीयकरण करते हैं और मसीहा देश के सभी उच्च शिक्षा संस्थानों (एच.ई.आई.) पर नियंत्रण कर लेगा। यह भाजपा की ‘एक राष्ट्र-एक सरकार’ की नीति के अनुरूप तेजी से बढ़ते केंद्रीकरण का एक और उदाहरण है। यह संघवाद और राज्यों के अधिकारों पर एक जबरदस्त हमला है। 

राज्यों को मसौदा विनियमों को अस्वीकार करना चाहिए और भारतीय विश्वविद्यालयों के राष्ट्रीयकरण को हराने के लिए राजनीतिक और कानूनी रूप से लडऩा चाहिए। शिक्षकों और छात्रों को विरोध करना चाहिए। सावधान रहें, एक बार जब द्वैध शासन सार्वजनिक प्रशासन के सभी पहलुओं में स्थापित हो जाएगा, तो यह केवल समय की बात होगी जब द्वैध शासन राजशाही या निरंकुश शासक को रास्ता देगा।-पी. चिदम्बरम

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