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आज मनाया जा रहा है स्वामी श्रद्धानंद जी का बलिदान दिवस

Edited By Lata,Updated: 23 Dec, 2019 01:41 PM

amar balidani swami shraddhanand

राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज का नाम आर्य

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राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज का नाम आर्य जगत में बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है। महर्षि दयानंद ने जिन कार्यों की नींव रखी थी या करने का संकल्प लिया था, उन्हें पूरा करने के लिए स्वामी श्रद्धानंद जी ने वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्श को अपने जीवन में अपनाया। उनके द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य राष्ट्रहित के लिए था।
स्वामी श्रद्धानंद जी ने समाज के उत्थान के लिए और अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाने के लिए गुरुकुल कांगड़ी नामक ऐतिहासिक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के द्वारा स्वामी श्रद्धानंद ने मैकाले की शिक्षा पद्धति को चुनौती देने का कार्य किया जो उस समय में असंभव था। सर्वप्रथम कन्याओं की शिक्षा के लिए विद्यालय खोला। शुद्धि कार्य के  द्वारा किसी कारणवश अपने धर्म से च्युत हुए भाइयों को वैदिक धर्म का अनुयायी बनाने का कार्य किया। आर्य जगत उनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए हमेशा उनका ऋणी रहेगा।

अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज कर्मभूमि के अद्वितीय योद्धा थे जिन्होंने अपने अनुपम पुरुषार्थ एवं त्याग से आर्य समाज को एक नया रूप दिया। वकालत करते हुए उनकी गणना उस समय प्रसिद्ध वकीलों में होती थी। वह झूठे मुकद्दमे की पैरवी नहीं करते थे। मुंशीराम के ऊपर जब आर्य समाज का रंग चढ़ गया तो उन्होंने वकालत छोड़कर वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश किया। आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब को अपने योगदान से देश भर में अग्रगण्य संस्थाओं में लाकर खड़ा कर दिया। उस समय उनके सामने ऐसे विद्यालय स्थापित करने का प्रस्ताव विचाराधीन था जिससे अंग्रेजी सत्ता के चंगुल से भारतीय विद्यार्थी बचाए जा सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हरिद्वार में की और अंग्रेजी शासनकाल में यह प्रथम विद्यालय था जिसमें शिक्षा का माध्यम हिंदी रखा गया।
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स्वामी श्रद्धानंद ने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना करके एक नई क्रांति का सूत्रपात किया। इसी गुरुकुल कांगड़ी से अनेकों, विद्वान, देशभक्त बलिदानी तैयार हुए। कल्याण मार्ग के पथिक महात्मा मुंशीराम ने सर्वात्मा त्याग भावना से प्रेरित होकर अपनी जालन्धर वाली कोठी तथा सब सम्पत्ति आर्य समाज को दान कर दी। परमात्मा में उनकी असीम श्रद्धा थी इसलिए उन्होंने संन्यास के पश्चात अपना नाम श्रद्धानंद रखवाया।

गुरुकुल कांगड़ी का प्रबंध आचार्य रामदेव को सौंप कर स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज दिल्ली में पधारे और यहां से उनकी राजनीतिक और धार्मिक गतिविधियों का प्रारंभ हुआ। सन् 1922 में जब सिखों ने गुरु के बाग का सत्याग्रह प्रारंभ किया और अंग्रेजी सरकार उस आंदोलन को दबाने की तैयारी करने लगी तो इस समाचार को सुनकर स्वामी श्रद्धानंद जी तुरन्त अमृतसर पहुंच गए और सत्याग्रह का संचालन उन्होंने स्वयं अपने हाथ में लिया। वीर संन्यासी ने गुरु का बाग सत्याग्रह के प्रथम जत्थे के प्रथम सत्याग्रही के रूप में अपने आपको प्रस्तुत किया और अंग्रेजी सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में स्वामी जी ने सक्रिय भाग लिया और उस समय के देश के अग्रिम नेताओं में दिखाई दिए। अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुई क्रूर घटना को देखकर पंजाब की भूमि प्रकम्पित हो उठी। ऐसी स्थिति में कांग्रेस का नाम लेने वाला भी पंजाब में दिखाई नहीं देता था। तब स्वामी जी ने कांग्रेस का अधिवेशन अमृतसर में बुलाने का प्रस्ताव किया और स्वयं उनके स्वागताध्यक्ष बने। कांग्रेस के इतिहास में सर्वप्रथम स्वामी श्रद्धानंद जी ने अपना भाषण हिंदी में पढ़ा।

1919 में जब दिल्ली में कांग्रेस की सभाएं और जलूस बंद करने का आदेश दिया गया तो उस  समय स्वामी श्रद्धानंद जी के नेतृत्व में एक बहुत बड़ा जलूस निकाला गया। चांदनी चौक पर जलूस को रोक कर चेतावनी दी गई कि पीछे हट जाओ नहीं तो गोली चला दी जाएगी। उस समय स्वामी श्रद्धानंद जी ने गोरों की संगीनों के सामने अपना सीना तानकर कहा कि हिम्मत है तो पहले गोली मुझ पर चलाओ बाद में सत्याग्रहियों पर चलाना। स्वामी जी की निर्भीकता को देखकर जवानों को संगीनें हटा लेने का आदेश दिया गया। स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज हिंदू मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे इसलिए मुसलमानों ने जामा मस्जिद के मैम्बर पर खड़े होकर उपदेश करने की प्रार्थना की। इस्लाम के इतिहास में यह पहली घटना थी कि किसी गैर-मुस्लिम को इस प्रकार का सम्मान दिया गया हो। स्वामी श्रद्धानंद ने जामा मस्जिद के मैम्बर से हिंदुओं और मुसलमानों को संबोधित किया था परन्तु कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के कारण स्वामी श्रद्धानंद जी ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और खुले रूप से भारतीयकरण का कार्य अपने हाथ में लिया।
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सर्वप्रथम उन्होंने आगरा के मलकाने राजपूतों को स्वधर्म में वापस लेकर इस महान आंदोलन का सूत्रपात किया। स्वामी श्रद्धानंद के इस कार्य से कुछ साम्प्रदायिक लोग उनसे नाराज हो गए और 23 दिसम्बर 1926 को एक मतान्ध साम्प्रदायिक ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज ने जीवन पर्यन्त देश, धर्म और जाति के लिए सर्वस्व बलिदान किया और अंतिम क्षणों में अपना भौतिक शरीर भी राष्ट्र को अर्पण कर दिया।    


 

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