Edited By Niyati Bhandari,Updated: 08 Apr, 2021 10:31 AM
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बरसात के दिन थे। आकाश में बादल छाए हुए थे। ऋषिवर धौम्य सुखपूर्वक अपने आश्रम में विराजमान थे और शिष्यों को विद्यादान दे रहे थे। प्राचीन भारत के विद्यादानी ब्राह्मण नगर के बाहर आश्रम बनाकर बसते थे, वहीं जप, तप करते और अपने शिष्यों को
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Religious Katha- बरसात के दिन थे। आकाश में बादल छाए हुए थे। ऋषिवर धौम्य सुखपूर्वक अपने आश्रम में विराजमान थे और शिष्यों को विद्यादान दे रहे थे। प्राचीन भारत के विद्यादानी ब्राह्मण नगर के बाहर आश्रम बनाकर बसते थे, वहीं जप, तप करते और अपने शिष्यों को पढ़ाने-लिखाने के साथ शिष्य उनके घर का कामकाज भी संभालते थे।
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ऋषिवर धौम्य ऐसे ही गुरु थे और उनके आश्रम में निवास करने वाले शिष्यों की संख्या सैंकड़ों तक जा पहुंची थी।
एक दिन की बात है सहसा बादल घने हो गए। आकाश में बिजली चमकने लगी और कानों के पर्दे फाड़ने वाली गड़गड़ाहट से दसों दिशाएं कांप उठीं। इसके साथ ही बूंदाबांदी प्रारंभ हो गई और फिर मूसलाधार बारिश होने लगी, जैसे आकाश फट गया हो। बात की बात में जहां देखो पानी ही पानी फैल गया। गुरु जी चिंतित होकर बोले, ‘‘ऐसा पानी तो कभी नहीं बरसा। यदि खेत का बांध पक्का न किया गया तो उसकी सारी फसल बह जाएगी।
मेरी कुटिया रिसती है, जाकर देखूं उसमें पानी न भर जाए, पहला शिष्य बोला और चलता बना। मेरी कुटिया का पिछला भाग टूट गया है अब उसकी न जाने क्या दशा होगी, चल कर देखभाल करूं। दूसरा शिष्य बोला और निकल गया।
मेरे वल्कल वस्त्र तो बाहर ही पड़े हैं, कहीं वे बह न जाएं, तीसरे शिष्य ने कहा और वह भी जल्दी-जल्दी अपने पथ पर चल दिया। इस प्रकार कोई न कोई बहाना बनाकर लगभग सभी शिष्य खिसक गए।
अब तो आरूणि शांत न रह सका। वह उठकर खड़ा हुआ और बोला ‘‘मुझे आज्ञा दीजिए। मैं जाता हूं और बांध पक्का कर देता हूं।’’ गुरु जी ने आज्ञा दी।
‘‘तुम्हीं जाओ परंतु इतना याद रखना कि बांध कच्चा न रहने पाए, परिश्रम भले ही अधिक करना पड़े।’’
गुरु के शब्द सुनते ही आरूणि दौड़ते हुए खेत पर गया तो देखा कि बांध एक ओर से टूट गया है और उसके रास्ते खेत का पानी क्षण भर के लिए भी नहीं रुक रहा। वह बांध को मिट्टी से भरने की चेष्टा करने लगा और इसके साथ ही मानो उसके तथा पानी के बीच युद्ध छिड़ गया। पानी कहता था कि आज छोड़ कल न बरसूंगा और आरूणि कहता कि बांध कल नहीं, आज ही पक्का करूंगा परंतु आरूणि की एक भी नहीं चल रही थी।
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आरूणि जब मिट्टी का एक लोदा लाकर उस रिक्त स्थान पर रखता और दूसरा लेने जाता तब तक पहले वाला लोदा पानी के बहाव में बह जाता था। आरूणि क्या करे? कैसे गुरु की आज्ञा का पालन हो? कैसे बांध पक्का बने? कैसे खेत का पानी रुके? क्या वह वर्षा से हार मान ले और खेत का पानी बह जाने दे?
परंतु आरूणि यह मानने वाला नहीं था। जब उसे कुछ न सूझा तब उसने वर्षा पर विजय पाने के लिए बिल्कुल नया अनोखा उपाय सोचा। वह स्वयं उस टूटे हुए बांध पर लेट गया। अभिप्राय: यह कि उसने मिट्टी के बांध के स्थान पर हाड़ मांस का बांध बना डाला और हाड़ मांस के उस जीवित बांध के सामने वर्षा को हार माननी पड़ी। खेत के बहते हुए पानी को रुकना ही पड़ा।
जब दूसरे दिन प्रात: गुरु जी ने शिष्यों को पढ़ाना आरंभ किया तब उन्हें आरूणि नजर नहीं आया। आरूणि को न देख गुरु जी चिंतित हुए बोले, ‘‘आज आरूणि दिखाई नहीं दे रहा है, कहां गया है वह?’’ कल संध्या समय खेत की ओर जाता दिखाई दिया था। पहला शिष्य बोला।
अपनी कुटिया में पड़ा होगा। पढ़ने- लिखने में उसका जी लगता ही कहां है। इतना दिन चढ़ आया और अभी तक सो रहा है। दूसरा शिष्य बोला।
उसकी कुटिया तो सूनी पड़ी हुई है। कामचोर तो वह है ही, मैं समझता हूं कल अवसर पाकर कहीं भाग गया होगा।
तीसरा शिष्य बोला परंतु गुरु जी कुछ न बोले। वह चुपचाप खेत की ओर चल पड़े। वहां पहुंचकर करूणा भरे स्वर में पुकारने लगे, ‘‘ आरूणि... आरूणि... बेटा आरूणि।’’
जब कहीं से कोई उत्तर न मिला तब गुरु जी व्याकुल होकर खेत में चक्कर काटने लगे। अंत में जब वह ठीक उस स्थान पर पहुंचे तो देखते क्या हैं कि बेसुध आरूणि ने टूटे हुए बांध को घेर रखा है। उसके शीत से जकड़े हुए शरीर पर गीली मिट्टी की तहें जम गई हैं और वह धीमे-धीमे सांस ले रहा है। असल बात समझने में गुरु जी को विलम्ब न लगा। उनकी आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे। वह आरूणि को तुरंत आश्रम में उठा लाए। उन्होंने अपने हाथों से उसका शरीर धोया, पोंछा, उस पर मालिश की। फिर उसे गर्म कपड़ों से ढंक दिया।
आरूणि थोड़ी देर बाद होश में आ गया। यह देख कर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘बेटा! तुम्हारी गुरु भक्ति पर मुझे अभिमान है। मैं आशीर्वाद देता हूं कि तुमको सारी विद्याएं प्राप्त हो जाएं, तुम सुख से जीवन बिताओ और खूब नाम कमाओ। कहना नहीं होगा कि गुरु के वचन सच्चे सिद्ध हुए।
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