Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Apr, 2018 08:19 AM
भारत में अयोध्या को सभी जानते हैं लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया स्थित देश थाईलैंड भी प्रभु श्रीराम के जीवन से प्रेरित है। थाईलैंड के प्रमुख पर्यटन स्थलों में आता है प्राचीन शहर अयोध्या। अयोध्या का उल्लेख इतिहास में स्याम राज्य की राजधानी के तौर पर किया...
भारत में अयोध्या को सभी जानते हैं लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया स्थित देश थाईलैंड भी प्रभु श्रीराम के जीवन से प्रेरित है। थाईलैंड के प्रमुख पर्यटन स्थलों में आता है प्राचीन शहर अयोध्या। अयोध्या का उल्लेख इतिहास में स्याम राज्य की राजधानी के तौर पर किया गया है। अयोध्या नगरी की स्थापना एवं इसके इतिहास में यहां के आस-पड़ोस की जगहों का काफी महत्व और योगदान है। छोप्रया, पालाक एवं लोबपुरी नदियों के संगम पर बसा द्वीपनुमा शहर अयोध्या व्यापार, संस्कृति के साथ-साथ आध्यात्मिक अवधारणाओं का भी गढ़ रहा है।
इसका नामकरण भारत के अयोध्या के नाम पर हुआ। अयोध्या का मतलब है अपराजय। अयोध्या से इस शहर का नाम जोडऩे की वजह यह हो सकती है कि ईसा पूर्व द्वितीय सदी में इस क्षेत्र में हिंदुओं का वर्चस्व काफी ज्यादा था। पुरुषोत्तम राम के जीवन चरित पर भारत में भगवान वाल्मीकि द्वारा लिखी गई रामायण थाईलैंड में महाकाव्य के रूप में प्रचलित है। लिखित साक्ष्यों के आधार पर माना गया है कि इसे दक्षिण एशिया में पहुंचाने वाले भारतीय तमिल व्यापारी और विद्वान थे। पहली सदी के अंत तक रामायण थाईलैंड के लोगों तक पहुंच चुकी थी। वर्ष 1360 में राजा रमाथीबोधी ने तर्वदा बौद्ध धर्म को अयोध्या शहर का शासकीय धर्म बना दिया था, जिसे मानना नागरिकों के लिए अनिवार्य था लेकिन फिर इसी राजा को हिन्दू धर्म का प्राचीन दस्तावेज ही लगा, जिससे प्रभावित होकर इसने हिन्दू धर्म को ही यहां का आधिकारिक धर्म बना दिया, जो अब से एक शताब्दी पहले तक वैध था।
अयोध्या के राजा केवल बौद्ध धर्म मानने वाले नहीं बल्कि देवराजा भी हुआ करते थे इसलिए इनकी शक्तियां केवल सांसारिक ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक भी होती थीं, जो हिन्दुओं के इष्टदेव, इंद्र एवं विष्णु से जुड़ी होती थीं। 17वीं शताब्दी के लेखक वैन लिएट ने लिखा है कि स्याम का राजा अपने राज्य के लोगों द्वारा अपने उसूलों की वजह से देवताओं से भी ज्यादा पूजा जाता था। सम्राट के खिलाफ बोलने पर पंद्रह वर्षों की सजा का प्रावधान था। थाई संस्कृति एवं साहित्य का रामायण और पुरुषोत्तम राम से इस कदर जुड़ाव है कि यहां के राजा अपने नाम के साथ राम लगाया करते थे। चक्री वंश के राजा के नाम के साथ भी राम शब्द जुड़ा है। अयोध्या पर पांच राजवंशों के 33 राजाओं ने शासन किया।
पुरातत्व शोधकर्ताओं के अनुसार पत्थरों के ढेर में तबदील हुए अयोध्या का एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। यहां स्थित अवशेष इसके वैभव का बखान करते हैं। इन्हीं अवशेषों के आसपास आधुनिक शहर बस जाने से अयोध्या थाईलैंड के प्रमुख पर्यटन स्थलों में शुमार हो गया है, जिसे देखने प्रति वर्ष तकरीबन दस लाख लोग आते हैं। अपने शिल्प-वैभव की वजह से अयोध्या राजनीतिक और आध्यात्मिक तौर पर अति प्रभावशाली राज्य माना जाता रहा। मठों, आश्रमों, नहरों एवं जलमार्गों की वजह से उस वक्त इस शहर की तुलना धार्मिक, व्यापारिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से वेनिस और ल्हासा से की जाती थी।
1767 में म्यांमार के नागरिकों ने अयोध्या पर चढ़ाई करके इसे लूट लिया और तहस-नहस कर डाला। स्याम की राजधानी कहलाने वाला अयोध्या एक लुटे-पिटे शहर में तबदील हो गया। अब यह स्याम की राजधानी नहीं रहा था। यहां केवल जंगल रह गए। 1976 में थाइलैंड की सरकार ने इस शहर के पुनर्निर्माण पर ध्यान दिया। यहां के जंगलों को साफ करके अवशेषों की मुरम्मत की गई और विश्व पटल पर इसे खड़ा किया गया।
अयोध्या का मुख्य आकर्षण है शहर के मध्य स्थित प्राचीन पार्क। इसके बिना शिखर वाले खंभों, दीवारों, सीढिय़ों एवं बुद्ध की सिरकटी प्रतिमा की ओर लोगों का ध्यान बरबस ही चला जाता है। स्कल्पचर के बेहतरीन लालित्य एवं कला ने यहां की संस्कृति को जीवित रखा है, वरना यहां की सिरकटी मूर्तियां हास्यास्पद बन गई होतीं। थाईलैंड सरकार ने सोचा कि शहर में स्थित बौद्ध प्रतिमाओं को बचाने का सिर्फ एक उपाय है कि इनके आकार को बिगाड़ दिया जाए इसलिए इन प्रतिमाओं के सिर हटाकर उन्हें संग्रहालयों में रखा गया। हालांकि, ऐसा करने से कोई फायदा नहीं हुआ। इसी जगह पर बची सिर वाली कुछ बौद्ध मूर्तियां अब भी इन कलाकारों की कारीगरी का प्रमाण हैं।
सबसे ज्यादा खास वह प्रतिमा है जिसमें बुद्ध का सिर सैंड स्टोन से बनाया गया है और एक पीपल के वृक्ष की जड़ों में जकड़ा हुआ है। यह वृक्ष अयोध्या में वट महाथाट यानी 14वीं शताब्दी के प्राचीन साम्राज्य की स्मृति चिन्हों वाले मंदिरों के अवशेषों में मौजूद है। शहर में शेष बची बुद्ध प्रतिमाओं में से कुछ को बेच दिया गया या फिर सफाई के बाद तराश कर उन्हें दोबारा आकार देने की कोशिश की गई, जिससे उनका मूल स्वरूप नष्ट हो गया।
कथा प्रचलित है कि एक सुबह राजा इसी जगह पर बैठकर ध्यानमग्न था कि तभी उसे भूगर्भ से निकलती हुई अद्भुत दैवीय रोशनी नजर आई। राजा को यह जमीन के नीचे गड़ी बुद्ध प्रतिमा से निकलने वाला प्रकाश लगा, इसीलिए इस जगह पर मंदिर का निर्माण कराया गया। इसके मध्य में बड़ा-सा प्रांगण, 38 मीटर ऊंची भव्य मीनार और उस पर बनी लपेट छह मीटर ऊंची थी लेकिन मंदिर की यह खूबसूरती ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई और 15वीं शताब्दी में यह ढह गया। अब मीनारों की केवल नींव बची है।
1424 में राजा रक्षतीरथ द्वितीय द्वारा रक्षबुराना के प्रांगण में अपने पिता की समाधि के ऊपर एक वट बनवाया गया था। यहीं पर दो स्तूप हैं, जिन्हें राजा ने अपने दोनों भाइयों राजकुमार अई और राजकुमार ई की याद में बनवाया था। अब इन स्तूपों के अवशेष के रूप में केवल नींव ही बची है।
1957 में लुटेरों ने किसी पुराने खजाने को पाने की उम्मीद में प्रांगण के नीचे सुरंग बना दी थी। लुटेरे तो धरे गए लेकिन सुरंग ने थाईलैंड के ललित कला विभाग को इस जगह और भी ज्यादा अन्वेषण का मौका दे दिया।
अयोध्या का सबसे महत्वपूर्ण भवन है तीन छेदी, जिसमें तीन राजाओं की खाक मिली है। यह जगह खास लोगों को समर्पित की गई है। यहां पूजा-अर्चना की जाती थी और समारोह आयोजित होते थे। विहार फ्रा मोंग खोन बोफिट एक बड़ा प्रार्थना स्थल है। यहां बुद्ध की एक बड़ी प्रतिमा है। यह पहले 1538 में बनाई गई थी लेकिन बर्मा द्वारा अयोध्या पर चढ़ाई के दौरान नष्ट हो गई थी। यह प्रतिमा पहले सभागार के बाहर हुआ करती थी, बाद में इसे विहार के अंदर स्थापित किया गया। जब विहार की छत टूट गई, तब एक बार फिर प्रतिमा को काफी नुक्सान पहुंचा और राजा राम षष्ठम ने लगभग 200 वर्षों बाद इसे वहां से हटवा कर संग्रहालय में रखवा दिया। 1957 में फाइन आट्रस विभाग ने पुराने विहार को फिर से बनवाया और सुनहरे पत्तों से ढंक कर बुद्ध की प्रतिमा को फिर से पुरानी जगह पर रखवाया। फ्रा भेदी सी सूर्योथाई स्मारक रानी सूर्योथाई के सम्मान में बनवाया गया था।