प्राचीनकाल से लेकर आज तक भारत के इस धन की खूूब रही धूम

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Jan, 2020 10:09 AM

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प्राचीनकाल में भारतवासी गो-धन को ही मुख्य धन मानते थे और हर प्रकार से गोरक्षण, गो-संवर्धन और गो-पालन करते थे। वेदों से लेकर सभी ग्रंथों में गो-महिमा और गो-पालन के उपदेश और गोपालकों के इतिहास भरे हैं।

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प्राचीनकाल में भारतवासी गो-धन को ही मुख्य धन मानते थे और हर प्रकार से गोरक्षण, गो-संवर्धन और गो-पालन करते थे। वेदों से लेकर सभी ग्रंथों में गो-महिमा और गो-पालन के उपदेश और गोपालकों के इतिहास भरे हैं। वाल्मीकि-रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों से पता लगता है कि एक-एक बार में एक साथ लाखों गायों का दान किया जाता था। राजा नृग ने कहा है कि ‘मैंने न्याय से प्राप्त बछड़ों सहित असंख्य गाएं दान की थीं। जैसे पृथ्वी के धूलिकण, आकाश के तारे और वर्षा की जलधाराओं को कोई गिन नहीं सकता, वैसे ही उनकी भी कोई गणना नहीं की जा सकती और वे सभी गायें दुधार, नौजवान, सीधी, सुंदर, सुलक्षणा, कपिला और वस्त्रालंकारों से सजी हुई थी।’ (श्रीमद्भागवत, दशमस्कन्ध, अध्याय 64 देखिए)

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मर्यादा पुरुषोत्तम राघवेन्द्र भगवान श्रीराम चंद्र की जीवन लीला का वर्णन करते हुए देवर्षि नारद जी ने कहा है, भगवान श्रीराम ने दस सहस्र करोड़ (एक खर्व) गौएं विद्वानों को विधिपूर्वक दान की थीं। (वाल्मीकि रामायण 1/1/94)

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचंद्र जब वन जाने लगे, तब उनके पास त्रिजट नामक एक दरिद्र ब्राह्मण ने आकर याचना की। भगवान श्रीराम ने विनोद में उनसे कहा, ‘‘आप अपना डंडा जितनी दूर फैंक सकेंगे, वहां तक की सारे गायें आपको मिल जाएंगी।’’ 

ब्राह्मण बड़े जोर से घुमाकर डंडा फैंका। ब्राह्मण के हाथ से छूटा हुआ वह डंडा सरयू जी के उस पार हजारों गायों के गोष्ठ में जाकर गिरा। भगवान श्रीराम ने त्रिजट का सम्मान करते वहां तक की सारी गायें उनके आश्रम पर भेज दीं।

श्रीमद्भागवत में आता है कि भगवान श्री कृष्ण प्रतिदिन संध्या, तर्पण और गुरुजन-पूजन करने के उपरांत पहले-पहल ब्याही हुई, दुधार, बछड़ों वाली, सीधी, शान्त, वस्रालंकारों से सुसज्जित तेरह हजार चौरासी गायों का दान किया करते थे। 

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महात्मा पांडव जब अज्ञातवास करने के लिए छद्म-वेष धारण करके राजा विराट के यहां गए, उस समय सहदेव ने अपने को पांडवों का ‘तान्तिपाल’ नामक गो-अध्यक्ष बतलाकर कहा, ‘‘पांचों पांडवों में सबसे बड़े युधिष्ठिर महाराज के यहां गायों के दस हजार वर्ग थे, जिनमें प्रत्येक में आठ-आठ लाख गायें थीं। लाख-लाख और दो-दो लाख गायों के और भी बहुत-से वर्ग थे। उन सब गायों की देखभाल मैं करता था। चालीस कोस के अंदर जितनी गायें रहती हैं, उन सबकी भूत, वर्तमान और भविष्य की संख्या यानी वे पहले कितनी थीं, अब कितनी हैं और आगे कितनी होंगी-इसका मुझको पूरा ज्ञान है। जिन उपायों से गायों की वृद्धि होती है, उनको किसी प्रकार का रोग नहीं हो पाता, उन सब उपायों को मैं जानता हूं। उत्तम लक्षणों वाले ऐसे बैलों की भी मुझको पहचान है, जिनका मूत्र सूंघने मात्र से वन्ध्या स्त्री को भी गर्भ रह जाता है। (महाभारत, विराटपर्व, अध्याय 9)’’

महाराज युधिष्ठिर इतने प्रसिद्ध गोसेवी थे कि जब दुर्योधन को पांडवों के अज्ञातवास का पता नहीं लगा, तब भीष्मपितामह ने उनसे महाराज युधिष्ठिर की निवास भूमि के लक्षण बतलाते हुए कहा, ‘‘जहां युधिष्ठिर रहते होंगे, वहां गायों की संख्या बढ़ी हुई होगी और वे सब कृश एवं दुर्बल न होकर खूब हृष्ट-पुष्ट होंगी तथा उनके दूध, दही और घी भी बड़े सरस तथा हितकारक होंगे।’’ (महाभारत, विराटपर्व, अध्याय 28)

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महाराज विराट के यहां भी लाखों गायें थीं, जिनका कौरवों ने स्वयं आकर हरण किया था और उन गायों की रक्षा के लिए राजा, राजकुमार-सभी ने युद्ध में भाग लिया था। अंत में बृहन्नला बने हुए अर्जुन की सहायता से विराट ने विजय प्राप्त की।

इससे सिद्ध होता है कि देश उस समय गायों से भरा था और स्वयं राजा एवं राजकुमार गायों का रक्षणावेक्षण करने में अपना सौभाग्य समझते थे। यह तो द्वापर-युग तक की बात है। जैनों के चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के उपासकों में एक-एक के पास कितनी गायें थीं, इसका अनुमान निम्रलिखित वर्णन से लगाया जा सकता है। दस हजार गायों के समूह को एक ‘व्रज’ या ‘गोकुल’ कहते थे। 

इसी हिसाब से राजगृही के महाशतक और वाराणसी के चूलनी पिता के पास ऐसे आठ-आठ गोकुल अथवा अस्सी-अस्सी हजार गायें थीं। चम्पा के कामदेव, वाराणसी के सुरदेव, काम्पिल्य के कुण्डकौलिक एवं आलम्मिया के चूल शतक के पास साठ-साठ हजार गायें थीं। वाणीयग्राम के आनंद, श्रावस्ती के नन्दिनी पिता तथा शालिनी पिता के पास चालीस-चालीस हजार गायें थीं और पोलासपुर के शकडाल पुत्र के पास भी दस हजार गायें थीं। महाशतक की स्त्री खेती के दहेज में अस्सी हजार गायें दी गई थीं। (उपासक दशंक सुत्त)

धनञ्जय सेठ ने अपनी पुत्री विशाखा का विवाह श्रावस्ती के मिगार सेठ के पुत्र पुण्यवर्धन के साथ किया। मिगार ने धनञ्जय से पहले ही पुछवाया कि ‘हमारी बारात में स्वयं कौसलराज अपनी सेनासहित पधार रहे हैं, आप इनका सेवा-सत्कार तो कर सकेंगे?’ 

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धनञ्जय ने तुरंत उत्तर दिया कि ‘एक नहीं, दस राजाओं को लेते आइए।’ इस पर मिगार सेठ को जोश आ गया और उन्होंने श्रावस्ती में पहरे के लिए जितने आदमियों की आवश्यकता थी, उतनों को छोड़कर शेष सभी को बारात में ले लिया।

धनञ्जय ने बारात का खूब स्वागत-सत्कार किया और बारात को चार महीने तक रखा। स्वागत के देखभाल की सारी जिम्मेदारी विशाखा ने अपने ऊपर ली थी। धनञ्जय ने दहेज में 500 गाड़ी स्वर्ण मुद्रा, 500 गाड़ी सोने का सामान, 500 गाड़ी चांदी के बर्तन, 500 गाड़ी तांबे के बर्तन, 500 गाड़ी वस्त्र, 500 गाड़ी घी, 500 गाड़ी चावल, 500 गाड़ी गुड़, 500 गाड़ी हल, कुदाली आदि हथियार, 500 रथ और 1500 दासियां दीं। इसके बाद धनञ्जय की इच्छा हुई कि कन्या को कुछ गाएं दूं। 

उन्होंने सेवकों से कहा- ‘जाओ, छोटा गोकुल खोल दो। एक-एक कोस के अंतर पर एक-एक नगारा लेकर खड़े रहो। 140 हाथ की जगह बीच में छोड़कर दोनों तरफ आदमी खड़े कर दो, जिसमें गाएं इससे आगे न फैल सकें। जब सब लोग ठीक खड़े हो जाएं तो नगारा बजा देना।’ 

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सेवकों ने ऐसा ही किया। जब गाएं एक कोस पहुंचीं, तब नगारा बजा; फिर दो कोस पहुंचने पर बजा, अंत में तीन कोस पहुंचने पर फिर बजा। तीन कोस की लंबाई और 140 हाथ की चौड़ाई के मैदान में इतनी गायें भर गईं कि वे एक-दूसरे से शरीर को रगड़ती हुई चल पाती थीं। धनञ्जय ने कहा, ‘बस, मेरी बेटी के लिए इतनी गाएं पर्याप्त हैं; दरवाजा बंद कर दो।’ 

सेवकों ने दरवाजा बंद कर दिया। परंतु बंद करते भी 60,000 गायें, 60,000 बैल और 60,000 बछड़े तो और निकल ही गए। अनुमान कीजिए, इनके छोटे गोकुल में कितनी गाएं रही होंगी।

सिकन्दर जब भारत से लौटकर गए तो एक लाख उत्तम जाति की गायें साथ ले गए थे। मुसलमानों ने भी यहां से बहुत बड़ी संख्या में गायों का अपहरण किया। ईस्ट-इंडिया कंपनी के भारत में पदार्पण करने के पहले तक यहां गायों की बहुत बड़ी संख्या थी।


      

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