Bhartendu Harishchandra death anniversary: जानें, आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवन से जुड़ी कहानी

Edited By Sarita Thapa,Updated: 06 Jan, 2025 01:01 PM

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Bhartendu Harishchandra death anniversary: ब्रिटिश राज की शोषक प्रकृति का चित्रण करने वाले लेखन के लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को ‘आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह’ कहा जाता है। वह हिंदी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र’ था,...

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Bhartendu Harishchandra death anniversary: ब्रिटिश राज की शोषक प्रकृति का चित्रण करने वाले लेखन के लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को ‘आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह’ कहा जाता है। वह हिंदी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र’ था, ‘भारतेन्दु’ इनकी उपाधि थी। भारतेन्दु जी ने कविता को अश्लील शृंगार के कीचड़ से निकाला तथा उसे राष्ट्रीय भावना, सामाजिक तथा देशोद्धार की पवित्र भावनाओं से सुसज्जित किया। दूसरी ओर इन्होंने गद्य का रूप स्थिर और हिन्दी गद्य साहित्य के विकास की ओर अग्रसर किया।

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जिस समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का आविर्भाव हुआ देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेजी शासन में अंग्रेजी चरमोत्कर्ष पर थी। शासन तंत्र से संबंधित सम्पूर्ण कार्य अंग्रेजी में ही होता था। भारतीयों में विदेशी सभ्यता के प्रति आकर्षण था। ब्रिटिश आधिपत्य में लोग अंग्रेजी पढ़ना और समझना गौरव की बात समझते थे। ऐसे वातावरण में इन्होंने सर्वप्रथम समाज और देश की दशा पर विचार किया और फिर अपनी लेखनी के माध्यम से विदेशी हुकूमत का पर्दाफाश किया।

9 सितम्बर, 1850 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में जन्मे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता गोपाल चंद्र एक अच्छे कवि थे और ‘गिरधरदास’ उपनाम से कविता लिखा करते थे। हरिश्चन्द्र जब पांच वर्ष के थे तो माता की मृत्यु और दस वर्ष के थे तो पिता की मृत्यु हो गई। इस प्रकार बचपन में ही माता-पिता के सुख से वंचित हो गए। मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह हुआ।

काव्य-प्रतिभा इनको अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। इन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। 1857 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय उनकी आयु केवल 7 वर्ष के करीब थी। ये दिन उनकी आंख खुलने के थे। भारतेन्दु का कृतित्व साक्ष्य है कि उनकी आंखें एक बार खुली तो बंद नहीं हुई। शिक्षा की व्यवस्था प्रथा पालन के लिए होती रही। संवेदनशील व्यक्ति के नाते उनमें स्वतंत्र रूप से देखने-सोचने-समझने की आदत का विकास होने लगा। पढ़ाई की विषय-वस्तु और पद्धति से उनका मन उखड़ता रहा। क्वींस कॉलेज, बनारस में प्रवेश लिया, तीन-चार वर्षों तक कालेज आते-जाते रहे पर यहां से मन बार-बार भागता रहा। स्मरणशक्ति तीव्र थी, ग्रहण क्षमता अद्भुत इसलिए परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते रहे।

भारतेन्दु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिन्दी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। हिंदी में नाटकों का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। उनके नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के ‘विद्यासुन्दर’ (1867) नाटक के अनुवाद से होती है। 15 वर्ष की अवस्था से ही भारतेन्दु ने साहित्य सेवा प्रारम्भ कर दी थी। उन्होंने काव्य रचना के साथ पत्रकारिता भी की और कई पत्रिकाओं का संपादन किया।

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भारतेन्दु जी ने मात्र 34 वर्ष की अल्पायु में ही विशाल साहित्य की रचना की। उन्होंने अंग्रेजी शासन के तथाकथित न्याय, जनतंत्र और उनकी सभ्यता का पर्दाफाश किया। भारतेन्दु के वृहद साहित्यिक योगदान के कारण ही 1857 से 1900 तक के काल को ‘भारतेन्दु युग’ के नाम से जाना जाता है। वह बीस वर्ष की अवस्था में ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाए गए और आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने ‘तदीय समाज’ की स्थापना की थी। इन्होंने भाषा तथा साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किया।

स्वतंत्रता आंदोलन में भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने अंग्रेजी शासन का विरोध करते हुए देश सेवा के कार्य किए और काफी लोकप्रिय भी हुए। देशभक्ति की भावना के कारण उन्हें अंग्रेजी  हुकूमत का कोपभाजन बनना पड़ा। इनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें ‘भारतेंदु’(भारत का चंद्रमा) की उपाधि प्रदान की।

भाषा के क्षेत्र में उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया जो उर्दू से भिन्न है और हिन्दी क्षेत्र की बोलियों का रस लेकर संबोधित हुआ है। इसी भाषा में उन्होंने अपने सम्पूर्ण गद्य साहित्य की रचना की। साहित्य सेवा के साथ-साथ भारतेंदु जी की समाज-सेवा भी चलती रही। दीन-दुखियों, साहित्यकारों तथा मित्रों की सहायता करना वह अपना कर्तव्य समझते थे। भारतेंदु जी धन के अत्यधिक व्यय से ऋणी बन गए और दुश्चिताओं के कारण उनका शरीर शिथिल हो गया। परिणामस्वरूप 35 वर्ष की अल्पायु में ही 6 जनवरी, 1885 को मृत्यु ने उन्हें ग्रस लिया।

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