आज के दिन पहली बार विदेशी धरती पर मैडम भीकाजी कामा ने फहराया था झंडा

Edited By Prachi Sharma,Updated: 22 Sep, 2024 09:48 AM

bhikaji cama

‘भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुंच रही है इसलिए इस दासता से मुक्ति दिलाने के लिए भारतवासियो

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‘भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुंच रही है इसलिए इस दासता से मुक्ति दिलाने के लिए भारतवासियो आगे बढ़ो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का है।’’

यह आह्वान और जयघोष मैडम भीकाजी कामा ने 22 अगस्त, 1907 को जर्मनी के स्टटगार्ट में 7वीं अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में ‘वन्देमातरम्’ अंकित भारत का प्रथम तिरंगा ध्वज फहराने के बाद अंग्रेजों को कड़ी चुनौती देते हुए किया।

मैडम कामा भारतीय मूल की पारसी नागरिक थीं जिन्होंने लंदन, जर्मनी तथा अमरीका का भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया। उन्होंने ब्रिटिश शासन को भारत पर लगा कलंक बताकर उनकी जड़ें हिलाने का काम किया था। मैडम कामा का जन्म 24 सितम्बर, 1861 को बम्बई में एक धनी पारसी परिवार में हुआ था। इनके पिता सोराबजी पटेल प्रसिद्ध व्यापारी थे, जबकि मां जयजीबाई सोराबाई पटेल धार्मिक विचारों की महिला थीं। मैडम कामा शुरू से ही तीव्र बुद्धि वाली और संवेदनशील थीं। उनमें लोगों की मदद और सेवा करने की भावना बचपन से ही कूट-कूट कर भरी थी। इनका विवाह 1885 में एक पारसी समाज सुधारक रुस्तम जी कामा से हुआ।

ये दोनों अधिवक्ता होने के साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता भी थे, किंतु दोनों के विचार भिन्न थे। रुस्तम कामा अपनी संस्कृति को महान मानते थे, परंतु मैडम कामा अपने राष्ट्र के विचारों से प्रभावित थीं। उन्हें विश्वास था कि ब्रिटिश लोग भारत के साथ छल कर रहे हैं इसीलिए वह भारत की स्वतंत्रता के लिए सदा चिंतित रहती थीं।

धनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद इस साहसी महिला ने आदर्श और दृढ़ संकल्प के बल पर सुखी जीवन वाले वातावरण को तिलांजलि दे दी और शक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुंचे साम्राज्य के विरुद्ध क्रांतिकारी कार्यों से उपजे खतरों तथा कठिनाइयों का सामना किया। भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ते हुए उन्होंने लंबी अवधि तक निर्वासित जीवन बिताया।

1896 में मुम्बई में प्लेग फैलने के बाद भीकाजी ने तन-मन से मरीजों की सेवा की और वह खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गईं। इलाज के बाद वह ठीक तो हो गईं लेकिन डॉक्टरों ने उन्हें आराम और आगे के इलाज के लिए यूरोप जाने की सलाह दी। वर्ष 1902 में वह इसी सिलसिले में लंदन गईं और वहां भी उन्होंने भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिए काम जारी रखा। भीकाजी हालांकि अहिंसा में विश्वास रखती थीं लेकिन उन्होंने अन्यायपूर्ण हिंसा के विरोध का आह्वान भी किया था।  

भीकाजी कामा 33 सालों तक भारत से बाहर रहीं। इस दौरान वह यूरोप के अलग-अलग देशों में घूम-घूमकर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के पक्ष में माहौल बनाती रहीं। लंदन में रहते हुए वह दादाभाई नौरोजी की निजी सचिव भी थीं। आजादी से चार दशक पूर्व पहली दफा किसी विदेशी सरजमीं पर भारत का झंडा फहराया गया। ऐसा करने वाली भीकाजी कामा ही थीं। 1907 में जर्मनी के शहर स्टटगार्ट में इंटरनैशनल सोशलिस्ट कांग्रेस का आयोजन किया जा रहा था, जिसमें हिस्सा ले रहे सभी लोगों के देशों का झंडा लगा हुआ था लेकिन भारत के लिए ब्रिटिश झंडा था। उनको यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने एक नया झंडा बनाया।

उसे फहराते हुए कहा कि यह भारत का झंडा है जो भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। भीकाजी द्वारा लहराए गए इस झंडे में इस्लाम, हिंदुत्व और बौद्ध मत को प्रदर्शित करने के लिए हरा, नारंगी और लाल रंग इस्तेमाल किया गया था। बीच में देवनागरी लिपि में ‘वंदे मातरम्’ लिखा था।  

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उन्हें काफी कष्ट झेलने पड़े। भारत में उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। उन्हें लगातार एक देश से दूसरे देश भागना पड़ा। जीवन के अंतिम दिनों में 1935 में वह भारत लौटीं। उन्होंने मुंबई में 13 अगस्त, 1936 को अपनी अंतिम सांस ली।

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