Edited By Jyoti,Updated: 30 Aug, 2020 11:20 AM

30 अगस्त भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भुवनेश्वरी जयंती का पर्व मनाया जाता है। धार्मिक कथा व मान्यताओं के अनुसार देवी भुवनेश्वरी
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30 अगस्त भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भुवनेश्वरी जयंती का पर्व मनाया जाता है। धार्मिक कथा व मान्यताओं के अनुसार देवी भुवनेश्वरी, जिनको यह व्रत समर्पित है उन्हें 10 महाविद्याओं में से चौथे स्थान पर पूजा जाता है। कहा जाता है कि देवी भुवनेश्वरी तीनों लोगों की स्वामिनी हैं। प्रकृति से इनका संबंध होने के कारण इनकी तुलना मूल प्रकृति से तक की जाती है। आदिशक्ति देवी भुवनेश्वरी के स्वरूप में महादेव के समस्त लीला विलास की सहचरी कही जाती हैं, यानि इनकी सखी कहलाती हैं।

इन्हीं सभी कारणों के चलते देवी मां के इस रूप की पूजा का अधिक महत्व माना जाता है। मगर देवी भुवनेश्वरी का जन्म कैसे हुआ वह उन्हें भुवनेश्वरी का दर्जा प्राप्त क्यों हुआ। इसके बारे में बहुत लोग आज भी अनजान है। आइए जानते हैं देवी भुवनेश्वरी के जन्म से जुड़ी पौराणिक कथा-
प्राचीन समय में जब मधु कटक नामक महा दैत्यों ने पृथ्वी तथा पताल ऊपर अपना हां कर मचा रखा था तब सभी देवगण भगवान विष्णु के पास जाकर संपूर्ण ब्रह्मांड के रक्षा के लिए गए। कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु ने अपनी निद्रा का त्याग कर 5000 वर्षों तक मधु कैटभ नामक तत्वों से युद्ध किया। अधिक समय तक युद्ध करने के कारण भगवान विष्णु थक गए। जिसके बाद अंत में उन्होंने अपनी अंत कारण की शक्ति योग माया आद्या शक्ति से सहायता के लिए अनुरोध किया। जिसके बाद देवी ने उन्हें आश्वासन दिया कि वह उन दोनों असुरों को अपनी माया से मोहित कर देंगी जिसके बाद आप आसानी से उन्हें मार सकेंगे।
कथाएं प्रचलित है कि योग माया आद्याशक्ति की माया से मोहित होकर दोनों व्यक्तियों ने भगवान विष्णु से कहा था कि हमारा वध ऐसे स्थान पर कीजिएगा जहां ना ही जल होना ही स्थल। जिसके बाद इतना सुनते ही भगवान विष्णु ने दोनों जातियों को अपनी जान पर लेटा कर अपने सुदर्शन चक्र से उन दोनों के मस्तकों को देश से अलग कर दिया था।
इसके उपरांत ब्रह्मा विष्णु और शंकर में देवी आदिशक्ति योग निद्रा महामाया की स्तुति गई जिससे प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने ब्रह्मा जी को सृजन विष्णु जी को पालन और शंकर भगवान को संहार के लिए चुना।

मगर ब्रह्मा जी ने देवी आदिशक्ति से प्रश्न किया कि इस समय चारों ओर केवल चल ही जल फैला हुआ है, पंचतत्व, मात्राएं, और इंद्रियां कुछ भी व्याप्त नहीं है तथापि हम तीनों देव शक्तिहीन हैं।
जिस पर देवी मां ने मुस्कुराते हुए उस स्थान पर उनके समक्ष एक सुंदर विमान को प्रस्तुत किया तीनों देवताओं को विमान पर बैठ अद्भुत चमत्कार देखने का आग्रह किया। देवों के विमान पर विराजमान होने के पश्चात देवी मां का विमान आकाश में उड़ने लगा और पर एक ऐसे स्थान पर पहुंचा जहां जल नहीं था। कहा जाता है यह विमान वायु की गति से चलकर एक सागर के तट पर पहुंचा था।
स्थान का नजारा अत्यंत मनोहर था एवं ये अनेक प्रकार के पुष्प वाटिका से सुसज्जित था। तभी वहां त्रिदेव ने एक पलंग पर एक दिव्यांगना को बैठे हुए पाया।

इन देवी ने रक्त पुष्पों की माला और भक्तांबर धारण किया हुआ था। इसके अलावा वर, पाश, अंकुश, और अभय मुद्रा धारण किए हुए देवी भुनेश्वरी त्रिदेव के सन्मुख कृष्टि गोचर हुई जो सहहस्त्रों उदित सूर्य के प्रकाश के समान कांतिमयी थी।
यह सब देखने के बाद भगवान विष्णु ने देवी को साक्षात देवी जगदंबा महामाया मान उनकी स्तुति की। और उन्हें संपूर्ण ब्रह्मांड की जननी माना।