Edited By Niyati Bhandari,Updated: 04 Dec, 2024 11:11 AM
Bihar panchami vrindavan 2024: उत्सव-धर्मिता वृंदावन की सबसे विशेषता रही है। यही कारण है कि यहां वर्ष में एक भी दिन ऐसा नहीं जाता जब वृंदावन उत्सव न मनाता हो। वृंदावन के किसी न किसी मंदिर, मठ या आश्रम में प्रतिदिन उत्सव की धूम अवश्य ही बनी रहती है।
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Bihar panchami vrindavan 2024: उत्सव-धर्मिता वृंदावन की सबसे विशेषता रही है। यही कारण है कि यहां वर्ष में एक भी दिन ऐसा नहीं जाता जब वृंदावन उत्सव न मनाता हो। वृंदावन के किसी न किसी मंदिर, मठ या आश्रम में प्रतिदिन उत्सव की धूम अवश्य ही बनी रहती है। किंतु इस वृंदावन में एक दिन ऐसा भी आता है जब उत्सव की उमंग और आनंद का ज्वार अपनी अछोरता में यहां के समस्त मंदिरों, मठों, आश्रमों, पंथों और संप्रदायों की सीमाओं को अपनी रसमयता में डुबोकर, एक रस कर उत्सव नहीं, लोकोत्सव मनाता है। लोकोत्सव के इस महापर्व को प्रवासी और वृंदावन-वासी भक्त गण " श्री बिहार पंचमी " के नाम से पुकारते हैं।
मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन आयोजित होने वाला यह उत्सव सारस्वत-कुल-कमल-दिवाकर, आशुधीरात्मज, रसिक अनन्य-नृपति स्वामी श्री हरिदास जी के उपास्य और जन-जन के परमाराध्य ठाकुर श्री बांके बिहारी जी महाराज का प्राकट्य-दिवस है।
पारंपरिक श्रुति के अनुसार के यदुकुल के पुरोहित श्री गर्गाचार्य के परिवार की एक शाखा कंस के दमन-चक्र के कारण मथुरा से पंजाब की ओर चली गई और वहां उन्होंने 'उच्च' नामक स्थान को अपना केंद्र बनाकर कृष्ण-भक्ति का प्रचार किया। विक्रम की सोलहवीं सदी के आरंभ में इसी कुल में गोस्वामी गदाधर जी के यहां गोस्वामी आशुधीर जी का जन्म हुआ। कालांतर में आशुधीर जी उच्च को छोड़कर ब्रज चले आए और ब्रज के 'कोर' नामक स्थान को अपनी साधना-स्थली बनाया । यहीं पर उनके यहां भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी जिसे राधा अष्टमी भी कहते हैं के दिन संवत् 1535 विक्रमी में स्वामी हरिदास जी का जन्म हुआ । बाद में ब्रज की यह 'कोर' ही स्वामी हरिदास जी की जन्मभूमि होने के कारण 'हरिदासपुर' के नाम से प्रसिद्ध हुई । स्वामी हरिदास जी के दो अनुज गोस्वामी जगन्नाथ जी और गोस्वामी गोविंद जी थे । समय पाकर स्वामी हरिदास जी का विवाह हरिमती जी से हुआ । किंतु प्रथम-मिलन की रात्रि में उनके लाख के कंकणों से उत्पन्न हुई अग्निशिखा में वे लीन हो गयीं और परिवार में विजया सती के रूप में पूजी गईं।
संवत् 1560 विक्रमी में स्वामी हरिदास अपने पिता श्री आशुघीर जी से युगल मंत्र की दीक्षा लेकर विरक्त होकर वृंदावन चले आए और यमुना तट के सधन वन-प्रान्तर में जिस स्थान को अपनी साधना का केंद्र बनाया, आज यह स्थान "निधिवन" के नाम से विख्यात है । इसी निधिवन में संवत 1562 विक्रमी में मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन स्वामी हरिदास की रस-साधना के फलस्वरूप श्री बांके बिहारी जी महाराज के स्वरूप का प्राकट्य हुआ। निधिवन की सघन कुंजें स्वामी हरिदास जी महाराज के मधुर गायन से गूंज उठीं।
माई री सहज जोरी प्रगट भई, जु रंग की गौर-स्याम घन-दामिनि जैसैं । प्रथमहुं हुती, अबहुं, आगैं हूं रहिहै न टरिहै तैसैं। अंग-अंग की उजराई गहराई चतुराई सुन्दरता ऐसैं। श्री हरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी सम वैस-वैसै।
निधिवन स्वामी जी और श्री बांके बिहारी जी महाराज की जय-जयकार से गूंज उठा। श्री बांके बिहारी जी महाराज की नित्यायनी - सेवा स्वामी हरिदास जी ने अपने अनुज गोस्वामी जगन्नाथ जी को सौंप दी। गोस्वामी जगन्नाथ जी ने बड़े चाव से श्री बिहारी जी महाराज को लाड़ लड़ाया ।
जिस दिन निधिवन में स्वामी जी की साधना के फलस्वरूप श्री बांके बिहारी जी महाराज प्रकट हुए, उसी दिन हरिदासपुर में स्वामी हरिदास के छोटे अनुज गोस्वामी गोविंद जी के यहां एक बालक का जन्म हुआ। यह बालक केवल 5 वर्ष की छोटी-सी अवस्था में वृन्दावन आकर स्वामी हरिदास जी का शिष्य हो गया और श्री बीठल विपुल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इन श्री बीठल विपुल जी ने स्वामी हरिदास जी महाराज की भाव-साधना को अन्ययता पूर्वक अपनाया ।
प्राकट्य के उपरांत श्री बिहारी जी महाराज निधिवन में एक लता-मंडल में विराजमान होकर गोस्वामी जगन्नाथ जी द्वारा सेवित हुए। बाद में श्री बिहारी जी महाराज की शृंगार सेवा के अधिकारी गोस्वामी रासदास जी ने लता-मंडप के स्थान पर "रंग-महल" का निर्माण कराया। जिसमें श्री बांके बिहारी जी महाराज संवत 1850 विक्रमी तक विराजमान रहे। उसके बाद श्री बांके बिहारी जी महाराज निधिवन से भरतपुर के राजा बदन सिंह जी द्वारा भेंट दिए गए बाग में आकर विराजे। इसी बाग में संवत् 1921 विक्रमी में श्री बांके बिहारी जी महाराज का वर्तमान मन्दिर बनकर तैयार हुआ। जिसमें मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी, शनिवार के दिन श्री बांके बिहारी जी महाराज विराजमान हुए। अंग्रेजी कैलंडर के अनुसार इस दिन 10 दिसंबर सन् 1864 ईस्वी की तारीख थी।
निधिवन में श्री बिहारी महाराज के दर्शनों के लिए जिन लोगों का आना हुआ उनमें मुगल बादशाह अकबर, प्रसिद्ध संगीतकार और स्वामी हरिदास का शिष्य तानसेन, महाकवि सूरदास, भक्त रसखान, भक्तिमती मीराबाई, महाराज छत्रसाल बुंदेला, भरतपुर के महाराज बदन सिंह प्रमुख हैं। इसी तरह स्वामी विवेकानंद जी के गुरु परमहंस श्री रामकृष्ण देव भी श्री बिहारी महाराज के दर्शनों के लिए वृन्दावन पधारे थे।
वृंदावन में श्री बिहारी जी के प्राकट्य का यह उत्सव संवत् 1562 से ही वृन्दावन वासियों के द्वारा अत्यन्त उत्सव पूर्वक मनाया जाता रहा है।
श्री बिहारी जी महाराज के निधिवन से वर्तमान स्थान पर आकर विराजमान होने के साथ ही श्री बिहार-पंचमी के दिन स्वामी हरिदास जी महाराज की साधना-स्थली निधिवन से बधाई आने की परंपरा आरंभ हुई जो आज भी प्रचलित है ।
सन् 1962 ईस्वी में श्री बांके बिहारी जी महाराज के एक संन्यासी भक्त कृष्णानंद अवधूत के संकल्प से इस उत्सव में एक नयी बात यह जुड़ी कि प्राकट्य उत्सव की बधाई देने के लिए श्री बिहारी जी के मंदिर तक स्वामी हरिदास जी महाराज की सवारी अत्यन्त धूमधाम के साथ आने लगी। इस सवारी में स्वामी हरिदास जी महाराज एक भव्य रथ में विराजमान होते हैं और उनके साथ एक डोले में उनके अनुज और श्री बांके बिहारी जी महाराज के सेवाधिकारी गोस्वामी श्री जगन्नाथ जी तथा दूसरे डोले में स्वामी श्री बीठल बिपुल जी विराजमान होकर श्री बांके बिहारी जी महाराज के मंदिर पधारते हैं। इस सवारी के मंदिर पहुंचने के बाद ही आज श्री बिहारी जी महाराज इन सबके साथ राजभोग ग्रहण करते हैं। यह उत्सव श्री बिहारी जी महाराज के भक्तों के लिए प्रतिवर्ष अत्यन्त उत्साह और उमंग का अवसर लेकर आता है। इस उत्सव से संबंधित कुछ रसिकों ने बहुत अच्छी बाणी लिखी है, उसी में से स्वामी श्री राधासरण देव जु महाराज के पद
"ललिता हरिदासी के आंगन सुखद बधाई बाजें हो|
महल ते प्रगटे श्रीबांके बिहारी रसिकन के सुख काजें हो||
सखी सहेली सहचरी गावति अति आनन्द समाजें हो|
श्रीराधासरण छवि निरखत बिट्ठलविपुल प्रेम सुख साजें हो।।
बड़े प्रेम से गाए जाते है। इस वर्ष यही उत्सव 06 दिसंबर 2024 दिन शुक्रवार को श्री धाम वृंदावन में बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जा रहा है।
- राजू गोस्वामी
सेवाधिकारी श्री बांके बिहारी मंदिर
श्री वृंदावन धाम