Birthday of Thakur Roshan Singh: भारत के गुमनाम नायक को उनके जन्मदिन पर नमन

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 22 Jan, 2023 01:54 PM

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क्रांतिकारी रोशन सिंह को 1921-22 के असहयोग आंदोलन के समय बरेली शूटिंग केस में सजा सुनाई गई थी। बरेली सैंट्रल जेल में से सजा काटकर रिहा हुए

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Birthday of Thakur Roshan Singh: क्रांतिकारी रोशन सिंह को 1921-22 के असहयोग आंदोलन के समय बरेली शूटिंग केस में सजा सुनाई गई थी। बरेली सैंट्रल जेल में से सजा काटकर रिहा हुए तो 1924 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए। काकोरी हत्याकांड में उनका हाथ नहीं था लेकिन फिर भी उन्हें गिरफ्तार किया गया और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें मौत की सजा सुनाई।

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Life of Thakur Roshan Singh: रोशन सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में स्थित गांव नबादा में 22 जनवरी, 1892 को माता कौशल्या देवी और पिता ठाकुर जंगी सिंह के यहां हुआ। ठाकुर साहब ने बचपन से ही तलवार, बंदूक, गदा आदि सीखना शुरू कर दिया था। बंदूक चलाने में तो ये इतने प्रवीण थे कि उड़ती हुई चिड़िया को भी आसानी से मार गिराते थे। कुश्ती में भी अच्छे अच्छों को पल भर में धूल चटा देते थे। साहसी होने के साथ-साथ खूब व्यायाम करते जिसके कारण इनका शरीर बहुत ही बलिष्ठ हो गया था। देशभक्ति की भावना बचपन से ही कूट-कूट कर भरी हुई थी।

1921-22 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन चला रखा था। आरंभ से ही रोशन सिंह शाहजहांपुर तथा बरेली जिले के गांवों में घूम-घूम कर ग्रामीणों तक स्वराज संदेश पहुंचाते रहे। ब्रिटिश हुकूमत से सीधे-सीधे मोर्चा लेने वाले हजारों-लाखों हिंदुस्तानी नौजवान उस आंदोलन के चलते जेलों में ठूंसे जा चुके थे या फिर ठूंसे जा रहे थे।

Biography Of Thakur Roshan ठाकुर रोशन की जीवनी: आजादी के भूखे 31 वर्षीय बहादुर रोशन सिंह ने बरेली जिले में एक अंग्रेज पुलिस कर्मी की बंदूक छीन ली जिसने वहां मौजूद भीड़ के ऊपर ही गोलियां झोंक दी थीं। गिरफ्तार किए जाने के बाद इस जुर्म की सजा मुकर्रर की गई दो साल का कठोर कारावास। सैंट्रल जेल बरेली में ही इनकी भेंट कानपुर निवासी पंडित रामदुलारे त्रिवेदी से हुई जो उन दिनों पीलीभीत में शुरू किए गए असहयोग आंदोलन के फलस्वरूप 6 महीने की सजा भुगत रहे थे। रिहा होने के बाद 1924 में ठाकुर रोशन सिंह उसी रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए जिसके कर्णधार क्रांतिकारी पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र नाथ लाहिरी थे। आजादी के दीवाने और काले इरादों वाली गोरों की ब्रिटिश हुकूमत के दुश्मन इन वीरों का साथ पाकर सभी आजादी के संघर्ष के लिए धन की कमी को दूर करने की योजनाएं बनाते। उन्होंने आयरलैंड के क्रांतिकारियों का लूट का रास्ता अपनाया। इस कार्य को पार्टी की ओर से एक्शन नाम दिया गया। एक्शन के नाम पर पहली डकैती पीलीभीत जिले के एक गांव बमरौली में 25 दिसम्बर, 1924 को क्रिसमस के दिन एक चीनी व्यापारी व सूदखोर बलदेव प्रसाद के यहां डाली गई। पहली डकैती में 4000 रुपए और कुछ सोने-चांदी के जेवरात क्रांतिकारियों के हाथ लगे परन्तु मोहन लाल पहलवान नामक एक आदमी, जिसने इन्हें ललकारा था, अचूक निशानेबाज रोशन सिंह की रायफल से निकली एक ही गोली में ढेर हो गया।  

Kakori incident काकोरी कांड : फिर 9 अगस्त, 1925 को काकोरी रेलवे स्टेशन के पास यात्री ट्रेन को रोक कर सरकारी खजाना लूटा गया। 26 सितम्बर को इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया जबकि काकोरी कांड के मामले में ठाकुर रोशन सिंह का सीधे-सीधे कोई हाथ नहीं था। हां, उनकी शक्ल उस कांड में शामिल केशव चक्रवर्ती से मिलती थी। केशव चक्रवर्ती तो गोरी सरकार के हाथ नहीं लगे, लिहाजा उन्हें पकड़ लिया गया और हर दलील को खारिज करते हुए ‘काकोरी कांड’ के संदर्भ में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और अशफाकउल्ला खां की तरह रोशन सिंह को भी फांसी की सजा सुना दी गई।

Thakur Roshan Singh was a great revolutionary महान क्रांतिकारी थे ठाकुर रोशन सिंह: सजा सुनकर उन्होंने अदालत में ‘ओंकार’ का उच्चारण किया और फिर चुप हो गए। फांसी से पहली रात वह कुछ घंटे सोए। फिर ईश्वर भजन करते रहे। प्रात:काल शौच आदि से निवृत्त होकर यथानियम स्नान-ध्यान किया। कुछ देर ‘गीता’ पाठ में लगाया, फिर पहरेदार से कहा- ‘चलो’। उन्होंने अपनी काल कोठरी को प्रणाम किया और ‘गीता’ हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फांसी घर की ओर चल दिए। फांसी के फंदे को चूमा फिर जोर से तीन बार ‘वंदे मातरम्’ का उद्घोष किया। ‘वेद मंत्र’ का जाप करते हुए वह 19 दिसम्बर, 1927 को फंदे से झूल गए।

6 दिसम्बर, 1927 इन्होंने जेल से मित्रों को पत्र लिखा कि ‘जल्द ही मुझे फांसी होने वाली है। मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी जीने के लिए जा रहा हूं। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले ऋषि-मुनियों की।’

 संगम तट पर वैदिक रीति से उनका अंतिम संस्कार किया गया।

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