Edited By Punjab Kesari,Updated: 11 Jan, 2018 12:36 PM
अक्सर सुनने में आता है कि ज्ञान मार्ग की साधना करने से जीव, ब्रह्म में लीन हो जाता है। परंतु मुझे आज तक इसका एक भी प्रमाण नहीं मिला। एक उदाहरण देने पर विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा। एक गिलास में पानी रखा है।
अक्सर सुनने में आता है कि ज्ञान मार्ग की साधना करने से जीव, ब्रह्म में लीन हो जाता है। परंतु मुझे आज तक इसका एक भी प्रमाण नहीं मिला। एक उदाहरण देने पर विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा। एक गिलास में पानी रखा है। उस एक गिलास में पानी की सत्ता है। अब उस पानी को नदी में डाल देने से गिलास के उस पानी की वह सत्ता नहीं रही, वह नदी के पानी में ही परिणत हो गया, अब उस नदी से उस गिलास के पानी को अलग करने का कोई उपाय नहीं रहा।
इसी तरह अब तर्क के लिए मान लेते हैं कि मुक्ति के बाद जीव, ब्रह्म में लीन हो जाता है। अगर ऐसा होता है तो ब्रह्म से जीव को भी अलग करना संभव नहीं होगा, क्योंकि जीव तो मुक्ति के बाद ब्रह्म में परिणत हो चुका है, तब ब्रह्म से ब्रह्म को अलग करना असंभव है।
इस प्रकार जो सत्ता का सम्पूर्ण विलोप है, क्या इसका एक भी प्रमाण शास्त्र में है?
यदि कहा जाए कि, अघासुर, शिशुपाल आदि उसका प्रमाण हैं तो उसका उत्तर प्रथमतः यह है कि अघासुर, शिशुपाल भगवान श्रीकृष्ण में लीन हुए थे, लेकिन वे परब्रह्म भगवान नहीं बने। श्रीकृष्ण में बाहरी दृष्टि से लीन होने पर भी उनकी सत्ता अलग ही रही। द्वापर युग के बाद जब कलियुग आया तो शिशुपाल श्रीचैतन्य महाप्रभुजी की लीला में माधाई बन कर आया। यदि वह श्रीकृष्ण में परिपूर्ण लीन हो गया होता तो श्रीचैतन्य लीला में माधाई के रूप में कैसे आया? एक और बात, वह ये कि कैवलाद्वैतवादियों का ब्रह्म केवल एक कल्पित निराकार निर्विशेष तत्त्व है, कोई स्वतंत्र तत्त्व नहीं है।
दूसरा, भगवान के पार्षद, जय-विजय ने ही ब्रह्म-शाप के कारण दंतवक्रव शिशुपाल के रूप में जन्म लिया था और तीनों जन्मों के बाद उस शाप के पूरे हो जाने पर, उन्होंने फिर से श्रीकृष्ण के अंदर प्रवेश होकर दिखाया कि ब्रह्म में लीन होने का मतलब सत्ता का सम्पूर्ण विलोप नहीं है- जीव की सत्ता हमेशा ही अलग रहती है, वह ब्रह्म या परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण में लीन होने पर भी ब्रह्म नहीं हो जाता है।
तीसरा, आसुरिक विचारधारा से जो साधना करता है, उनकी ही ब्रह्म में लीन रूपी गति होती है, यह उसी का उदाहरण हैं। आज तक के इतिहास में जिन-जिन असुरों का वध भगवान के हाथों से हुआ, सभी को ब्रह्मलीन वाली मुक्ति मिली।
अधिक क्या कहना, इस मत के जो प्रवर्तक हैं, उन आचार्य शंकरजी का भी क्या सत्ता का सम्पूर्ण विलोप हुआ था? यदि मान लिया जाए कि, हां हुआ था, तो शंकर सम्प्रदाय के अन्तर्गत - 'विद्यारण्य' भारती को क्यों कहा जाता है कि वे शंकराचार्यजी के अवतार हैं? 'ब्रह्म लीन' हुए शंकराचार्य जी की अलग सत्ता किस प्रकार से रह गई कि वह व्यक्तित्व ही दोबारा लौट आया? दूसरी ओर, आचार्य शंकर ने उनके गुरूदेव के गुरू - श्रीगौड़पादजी के द्वारा रचित 'माण्डूक्य कारिका' का एक भाष्य नामक ग्रंथ लिखा था और उन्होंने उसका समर्थन श्रीगोविन्द दासजी के माध्यम से श्रीगौड़पाद के द्वारा करवाया था। यह घटना तब की है जब श्रीगौड़पादजी ब्रह्म में लीन हो चुके थे। यदि ये माना जाय कि लीन होने के बाद जीव की सत्ता रही ही नहीं तो ब्रह्मलीन होने के बाद श्रीगौड़पादजी ने स्वयं प्रकट होकर कैसे उस भाष्य का समर्थन किया। संसार में दोबारा प्रकट होकर उस भाष्य के ब्रह्मलीन श्रीगौड़पादजी द्वारा समर्थन की चर्चा शंकराचार्य सम्प्रदाय में बहुत प्रचलित है। यदि ये माना जाए कि जीव के ब्रह्म में लीन होने पर उसकी सत्ता खत्म हो जाती है तो श्रीगौड़पादजी का ये चमत्कार किस प्रकार से हो सकता है?
यदि श्रीगौड़पादजी ब्रह्म में लीन हो गए होते जो उनके सिद्धांत के अनुसार उनका सत्ता का सम्पूर्ण विलोप स्वीकार करना पड़ता है, तो श्रीगौड़पादजी के साथ श्रीगोविंद दास का दोबारा साक्षात्कार किस प्रकार सम्भव है? इसलिए कैवलाद्वतवाद-प्रचारित ब्रह्म में लीन हो जाना बिल्कुल प्रमाणहीन है, अतएव यह युक्तिसंगत नहीं है।
पद्मपुराण में कहा गया है-- 'मायावादमसच्छास्त्रम्!' और श्रीमद् भागवत में कहा गया है --ततो दुःसंगमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत् बुद्धिमान। इसलिए जो जीव की सत्ता के विरोधी हैं, उनको ही दुःसंग के रूप में शास्त्रों में कहा गया है और यह दुःसंग अवश्य ही वर्जनीय है।
कहने का तात्पर्य है कि मुक्त दशा में भी उपास्य, उपासक और उपासना की नित्यता हमारे सनातन धर्म के शास्त्रों में हमेशा से स्वीकृत है।
आप सभी ने नारद ॠषि के संबंध में सुना है। सभी सम्प्रदायों के लिए वे परम मुक्त पुरुष के रूप में मान्य हैं, यहां तक कि मायावादी सम्प्रदाय भी उन्हें गुरू रूप में स्वीकार करने में आपत्ति नहीं करता है। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में उनके विषय में वर्णन इस प्रकार है--
गोविन्द-भुज-गुप्तायां द्वारवत्यां कुरुद्वहः।
अवात्सीत् नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासन-लालसः॥
अर्थात् श्रीनारद गोस्वामी, भगवान श्रीकृष्ण जी के दर्शनों की लालसा से द्वारिकापुरी में आते थे व आते हैं। यहां सोचने का विषययह है कि- वे मुक्त पुरुष हैं या नहीं। यदि मुक्त हैं, तो मुक्ति के बाद भी उनमें श्रीकृष्णजी की उपासना की लालसा देखी गई। अतएव समझ में आता है कि मुक्ति के बाद भी ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता-- इन त्रिपुटियों का विनाश नहीं होता है।
शास्त्रों में कहा गया है-- मुक्ता अपि लीलया विग्रहं कृत्वा भगवन्तं भजन्ते। सदा पश्यन्ति सूरयः। अर्थात् भगवान के भक्त लोग अपने दिव्य नेत्रों से हमेशा भगवान के पादपद्मों के दर्शन करते रहते हैं। इस तरह से यहां पर भी मुक्त दशा में भी उपास्य, उपासक और उपासना की नित्य सत्ता स्वीकृत हुई है। किंतु मायावादियों द्वारा इन सब वाक्यों का सामन्जस्य नहीं रख पाने के कारण, व्यासदेव को भ्रान्त अद्वैतवादी कहा जाता है, जो कि किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। सार यह है कि भगवान ने जीव की सत्ता को भी नित्य बनाया है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
प्रस्तुति-श्री भक्ति विचार विष्षु जी महाराज
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