Edited By Niyati Bhandari,Updated: 17 Jul, 2024 02:38 PM
भारत धर्म प्रधान देश है। इसके सभी धर्मों में अपने-अपने ढंग से साधना-पद्धतियां, मान्यताएं और आचार प्रणालियां प्रचलित हैं, जो मानव जीवन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। इन धार्मिक पद्धतियों को
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Chaturmas in Jainism: भारत धर्म प्रधान देश है। इसके सभी धर्मों में अपने-अपने ढंग से साधना-पद्धतियां, मान्यताएं और आचार प्रणालियां प्रचलित हैं, जो मानव जीवन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। इन धार्मिक पद्धतियों को अपने-अपने ढंग से निर्वहन करने का अपना-अपना क्षेत्र और मार्ग है, जिसमें चातुर्मास की परंपरा महत्वपूर्ण है। चातुर्मास की परंपरा प्रमुख रूप से जैन, सनातन और बौद्ध धर्म के साधकों में प्रचलित है। चातुर्मास को वर्षावास भी कहते हैं। वर्षा ऋतु के कारण जलभराव से जंतुओं की उत्पत्ति अधिक हो जाती है। उनकी रक्षा हेतु तथा धर्म-साधना के लिए चातुर्मास करने का शास्त्रीय विधान है। जैन धर्म में यह परंपरा अत्यंत प्राचीन है।
भगवान महावीर ने स्वयं 42 चातुर्मास किए थे। भगवान महावीर ने अपने 42 चातुर्मासों में जीव, जगत और निर्वाण आदि अत्यंत गहन विषयों पर गवेषणा की थी। हमारे साधु-साध्वियां भी भगवान के मार्ग पर चलकर यही धर्मोपदेश करते हैं परंतु युगानुरूप जैन धर्म के चातुर्मासों को नए आयाम देने की आवश्यकता है। बालकों को संस्कारित करना, उनमें मानवीय गुणों का बीजारोपण करना और जन-मानस में धार्मिक सहिष्णुता का प्रसार करने आदि की राष्ट्र को अधिक आवश्यकता है।
हमारे चारों ओर अज्ञानता, दरिद्रता, साम्प्रदायिक विषमता का वातावरण है। इसे दूर करने की आवश्यकता है। धर्म के नाम पर फैले पाखण्डों और मिथ्या धारणाओं का निराकरण करना चाहिए। पाठ, जाप और अनुष्ठान ये व्यक्तिगत धर्म हैं। इनके साथ-साथ इन्हें व्यावहारिक भी बनाना चाहिए। यही युग-धर्म की मांग है और इसी से हमारे चातुर्मास की उपयोगिता सिद्ध होगी।
जैन धर्म में चातुर्मास एक आध्यात्मिक पर्व है। यह किसी बाह्य क्रिया कांड का नाम नहीं, अपितु जीवन जीने की कला का पर्व है। हमने केवल इस पर्व को मनाना ही नहीं है अपितु इसे जीना और स्वयं को परखना भी है। जैन धर्म में चातुर्मास कोई परिपाटी या औपचारिकता नहीं अपितु यह जीवन निर्माण का एक अवसर प्रदान करता है।
शास्त्रीय विधान के अनुसार चातुर्मास में साधु-साध्वियों के लिए विहार कर अन्यत्र जाना वर्जित है परंतु ‘ठांणाग सूत्र’ के अनुसार दुर्भिक्ष पड़ने, राज पुरुष की क्रूरता, विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति, रुग्ण साधु-साध्वी की सेवा आदि अपवाद स्वरूप कारणों से विहार कर अन्यत्र भी जा सकते हैं। जैन इतिहास में ऐसे बहुत से अपवाद विद्यमान हैं।
चातुर्मास में महापर्व संवत्सरी का आगमन भी होता है। यह एक अलौकिक पर्व है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते व्यापार तथा व्यवहार में अनेक भूलें हो जाती हैं। उन भूलों के लिए परस्पर क्षमा याचना करना संवत्सरी पर्व का मूल ध्येय है। यह एक ऐसा पर्व है जिसे राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाना चाहिए।
आगमों भगवान को वैद्य के समान, श्रावक को रोगी के समान, दोषों को रोगों के समान और क्षमायाचना को औषधि के समान माना जाता है। जो व्यक्ति सच्चे हृदय से क्षमायाचना करता है, वही इस पर्व को मनाने का अधिकारी है। यही जैन धर्म के चातुर्मास की विशेषता और महत्व है। ये चातुर्मास परस्पर भाईचारे, समरसता और एकसुरता के प्रतीक हैं।