Edited By Niyati Bhandari,Updated: 14 Sep, 2021 01:03 PM
महर्षि दधिचि वेद शास्त्रों के ज्ञाता, परोपकारी और बहुत दयालु थे। उनके जीवन में अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं था। वह सदा दूसरों का हित करने के लिए तत्पर रहते। परम तपस्वी महर्षि दधिचि के पिता एक महान ऋषि अथर्व जी थे और
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Dadhichi Jayanti 2021: महर्षि दधिचि वेद शास्त्रों के ज्ञाता, परोपकारी और बहुत दयालु थे। उनके जीवन में अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं था। वह सदा दूसरों का हित करने के लिए तत्पर रहते। परम तपस्वी महर्षि दधिचि के पिता एक महान ऋषि अथर्व जी थे और माता का नाम शांति था। महर्षि दधिचि ने अपना सम्पूर्ण जीवन शिव जी की भक्ति में बिताया। वह जहां रहते थे उस वन के पशु-पक्षी तक उनके व्यवहार से संतुष्ट थे। वह इतने परोपकारी थे कि उन्होंने असुरों के संहार के लिए अपनी अस्थियां तक दान में दे दीं। भारतीय इतिहास में कई दानी हुए हैं किन्तु मानव कल्याण के लिए अस्थियों का दान करने वाले एकमात्र महर्षि दधिचि ही हुए हैं।
एक बार इंद्रलोक पर वृत्रासुर नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया तथा देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं को इंद्रलोक से निकाल दिया। सभी देवी-देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश के पास गए लेकिन कोई भी इस समस्या का समाधान न कर सका। काफी सोच-विचार कर ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बतलाया कि पृथ्वी लोक में ‘दधिचि’ नामक महर्षि रहते हैं। यदि वह अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उनसे एक वज्र बनाया जाए। उससे वृत्रासुर मारा जा सकता है क्योंकि उसे वरदान प्राप्त था कि किसी अस्त्र-शस्त्र से उसे नहीं मारा जा सकता।
महर्षि दधिचि की अस्थियों में वह तेज है जो भगवान शिव की अराधना से उन्हें प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त वृत्रासुर को मारने का कोई अन्य उपाय नहीं है।
देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचारों से तंग देवराज इंद्र को सिंहासन बचाने के लिए देवताओं सहित महर्षि दधिचि की शरण में जाना पड़ा। महर्षि ने देवराज का पूर्ण सम्मान किया और देवराज इंद्र द्वारा उन्हें अपनी व्यथा सुनाने के बाद महर्षि ने उनसे पूछा, ‘‘देवलोक की रक्षा के लिए मैं क्या कर सकता हूं?’’
देवताओं ने उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की बातें बतला कर उनकी अस्थियों का दान मांगा। महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। उन्होंने समाधि लगाई और अपनी देह त्याग दी। उस समय महर्षि की पत्नी आश्रम में नहीं थीं।
अब देवताओं के समक्ष एक समस्या आई कि महर्षि दधिचि के शरीर का मांस कौन उतारे इस कार्य से सभी देवता सहम गए। तब इंद्र ने कामधेनु गाय को बुलाया जिसने महर्षि के मृतक शरीर से चाट कर मांस उतार दिया। अब केवल अस्थि पिंजर रह गया था। महर्षि की पत्नी जब आश्रम आईं तो अपने पति का हाल देख कर विलाप करते हुए सती होने की जिद करने लगी।
वह गर्भ से थीं तो देवताओं ने उन्हें गर्भ को उन्हें सौंपने का निवेदन किया जिसके लिए महर्षि की पत्नी राजी हो गईं। देवताओं ने गर्भ को बचाने के लिए पीपल को उस गर्भ का लालन-पालन करने का दायित्व सौंपा।
कुछ समय पश्चात वह गर्भ पलकर शिशु हुआ तो पीपल द्वारा पालन-पोषण करने के कारण उसका नाम पिप्पलाद रखा गया। इसी कारण दधिचि के वंशज दाधीच कहलाते हैं।
दधिचि की अस्थियों से शस्त्र बनकर देवताओं ने दैत्य वृत्रासुर का वध किया। आज संसार में लोक कल्याण के लिए आत्मत्याग करने वालों में महर्षि दधिचि का नाम बड़े ही आदर से लिया जाता है क्योंकि उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राण दान कर दिए थे।