Edited By Jyoti,Updated: 27 Mar, 2022 01:42 PM
राजा अपने दलबल सहित एक अनाम साधु के आश्रम में पहुंचे और साधु को प्रणाम करके बोले
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राजा अपने दलबल सहित एक अनाम साधु के आश्रम में पहुंचे और साधु को प्रणाम करके बोले "महाराज! सुना है, कि आप किसी भी व्यक्ति के द्वारा दिया गया दान स्वीकार नहीं करतें। परंतु यदि कोई वास्तविक दान दाता है तो वह दान देकर ही रहेगा.... अर्थात आप जैसे साधु को उसका दान स्वीकार करना ही पड़ेगा और मुझे विश्वास है कि आज इस पृथ्वी पर कोई भी अन्य राजा मुझ जैसा दानी प्रजा हितैषी , न्यायी तथा शासन प्रबंधन नहीं है।"
राजा की बात सुनकर वह साधु सुनकर समझ गया कि राजा को अपने आप पर बहुत अहंकार हो गया है इसलिए मुस्कुराते हुए बिना कुछ बोले ही उसने अपने दाहिने हाथ की हथेली राजा के सामने फैल दी। साधु की फैली हथेली देख राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने बहुत सा अन्न और वस्त्र साध के समक्ष रख दिए।
साधु बोला, "राजन! मेरे आश्रम में मेरे सहित सभी लोग प्रतिदिन श्रम करते हैं जिससे अन्न और वस्त्रों का कोई अभाव नहीं रहता।"
उसने फिर से राजा के सामने अपने हथेली फैला दी। राजा ने फिर से संकेत किया तो सेवकों ने स्वर्ण-मुद्राओं से भरी थैलियां साधु के समक्ष रख दी।
"नहीं राजन, नहीं....साधुओं को स्वर्णों की आवश्यकता नहीं होती...साधु तो स्वयं स्वर्ण होता है। वह जितना तपता है, उनका दमकता है।"
और उसकी फिर से फैली हथेली राजा के समक्ष थी।
राजा ने अपने आप को अपमानित सा अनुभव करते हुए कुछ रूखे स्वर में कहा, "महाराज! आप चाहे तो मैं अपना राज्य दान में दे सकता हूं। मांगो जो मांगना हो।"
साधु ने कहा, "राज्य आपका नहीं , प्रजा का है, राजन! वैसे भी मुझे राज्य लेकर क्या करना है? हां, यदि आप देना ही चाहें तो अपने अहंकार का दान मुझे दीजिए, क्योंकि कोई भी अहंकार शासक अपने प्रजा का भला नहीं कर सकता इसलिए राजन अपनी श्रेष्ठता एनं दानशीलता के अहंकार को त्यागिए...लोगों में घुल मिलकर उनका दुख-दर्द जानिए।"
राजन ने अपना मस्तिष्क साधु के चरणों में झुका दिया।