Edited By Jyoti,Updated: 09 Sep, 2022 11:38 AM
एक संन्यासी किसी राजा के पास पहुंचा। राजा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया। जाते समय संन्यासी ने राजा से अपने लिए उपहार मांगा। राजा ने एक पल सोचा और कहा, ‘‘जो कुछ भी खजाने में है, आप ले सकते हैं।’’
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एक संन्यासी किसी राजा के पास पहुंचा। राजा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया। जाते समय संन्यासी ने राजा से अपने लिए उपहार मांगा। राजा ने एक पल सोचा और कहा, ‘‘जो कुछ भी खजाने में है, आप ले सकते हैं।’’
संन्यासी ने उत्तर दिया, लेकिन खजाना तुम्हारी सम्पत्ति नहीं है, वह तो राज्य का है और तुम मात्र उसके संरक्षक हो। राजा बोले, ‘‘महल ले लीजिए।’’
इस पर संन्यासी ने कहा, ‘‘यह भी तो प्रजा का है।’’
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राजा बोले, ‘‘तो महाराज आप ही बताएं कि ऐसा क्या है जो मेरा है और आपको देने लायक हो?’’ संन्यासी ने उत्तर दिया, ‘‘तुम सच में मुझे कुछ देना चाहते हो, तो अपना अहं दे दो। अहंकार यश का नाश करता है। अहंकार का फल क्रोध है। अहंकार में व्यक्ति अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है। वह जिस किसी को अपने से सुखी-सम्पन्न देखता है, ईष्र्या कर बैठता है। हम अपनी कल्पना में पूरे संसार से अलग हो जातेे हैं।’’
राजा संन्यासी का आशय समझ गया और उसने वचन दिया कि वह अपने भीतर से अहंकार को निकाल कर रहेगा।