Edited By Jyoti,Updated: 16 Sep, 2022 11:20 AM
एक बार महाकाश्यप ने भगवान बुद्ध से पूछा था-भगवन् मन तो बड़ा चंचल है, यह सधे कैसे? यह निर्मल कैसे हो? इन प्रश्रों के उत्तर में भगवान चुप रहे। अगले दिन वह महाकाश्यप के साथ एक यात्रा के लिए निकले।
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एक बार महाकाश्यप ने भगवान बुद्ध से पूछा था-भगवन् मन तो बड़ा चंचल है, यह सधे कैसे? यह निर्मल कैसे हो? इन प्रश्रों के उत्तर में भगवान चुप रहे। अगले दिन वह महाकाश्यप के साथ एक यात्रा के लिए निकले।
यात्रा में दोपहर के समय वह एक वृक्ष की छांव में विश्राम के लिए रुके। उन्हें प्यास लगी तो महाकाश्यप पास के पहाड़ी झरने से पानी लेने के लिए गए लेकिन झरने में से अभी बैलगाडिय़ां निकली थीं और उसका पानी गंदा हो गया था।
महाकाश्यप ने सारी बात भगवान् को बताते हुए कहा-प्रभु! झरने का पानी गंदा है, मैं पीछे जाकर नदी से पानी ले आता हूं। लेकिन बुद्ध ने हंसते हुए कहा-नदी दूर है, तुम फिर से वापस झरने के मूल में जाओ और पानी लेकर आओ।
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भगवान् के कहने से महाकाश्यप फिर से वापस लौटे-उन्होंने देखा अपने मूल स्रोत में झरने का पानी बिल्कुल साफ है, वह जल लेकर वापस आ गए। उनके लाए जल को पीते हुए भगवान ने उन्हें बोध दिया-महाकाश्यप मन की दशा भी कुछ इसी तरह से है। जिंदगी की गाड़ियां इसे अस्त-व्यस्त करती रहती हैं। यदि कोई शांति और धीरज से उसे देखता रहे, उसके मूल स्रोत में प्रवेश करने की कोशिश करे तो सहज ही निर्मलता
उभर आती है। बस बात मन को साधने की है। मन को साधने की साधना करते हुए ही जीवन निर्मलता, सफलता एवं आध्यात्मिक विभूतियों का भंडार बन जाता है।