Edited By Jyoti,Updated: 14 Nov, 2022 02:02 PM
तर्कशास्त्र के विद्वान पंडित रामनाथ ने नवद्वीप के पास एक निर्जन वन में विद्यालय स्थापित किया था। कृष्ण नगर में महाराज शिवचंद्र का शासन था। महाराज नीतिकुशल होने के साथ विद्यानुरागी भी थे। उन्होंने पंडित रामनाथ की चर्चा सुनी। उन्हें यह जानकर दुख हुआ...
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तर्कशास्त्र के विद्वान पंडित रामनाथ ने नवद्वीप के पास एक निर्जन वन में विद्यालय स्थापित किया था। कृष्ण नगर में महाराज शिवचंद्र का शासन था। महाराज नीतिकुशल होने के साथ विद्यानुरागी भी थे। उन्होंने पंडित रामनाथ की चर्चा सुनी। उन्हें यह जानकर दुख हुआ कि ऐसा महान विद्वान गरीबी में दिन काट रहा है। महाराज स्वयं वहां गए और रामनाथ जी से पूछा, ‘‘आपका घर-खर्च कैसे चलता है।’’
पंडित जी बोले, ‘‘घर के खर्चों के बारे में गृहस्वामिनी मुझसे अधिक जानती हैं। यदि आपको कुछ पूछना हो तो उनसे पूछ लें।’’
राजा पंडित जी के घर गए और गृहिणी से पूछा, ‘‘माताजी, घर-खर्च के लिए कोई कमी तो नहीं है।’’
पंडित जी की पत्नी ने कहा, ‘‘महाराज! भला सर्वसमर्थ परमेश्वर के रहते उनके भक्तों को क्या कमी रह सकती है?’’
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राजा बोले, ‘‘फिर भी माता जी...।’’
साध्वी बोलीं, ‘‘महाराज! कोई कमी नहीं है। पहनने को कपड़े हैं, सोने के लिए बिछौना है। पानी रखने के लिए मिट्टी का घड़ा है। खाने के लिए विद्यार्थी अनाज ले आते हैं। भला इससे अधिक की जरूरत भी क्या है?’’
राजा ने आग्रह किया, ‘‘देवी! हम चाहते हैं कि आप को कुछ गांवों की जागीर प्रदान करें। इससे होने वाली आय से गुरुकुल भी ठीक तरह से चल सकेगा और आपके जीवन में भी कोई अभाव नहीं होगा।’’
उत्तर में वह वृद्धा ब्राह्मणी मुस्कुराईं और कहने लगीं, ‘‘प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा ने जीवनरूपी जागीर पहले से ही दे रखी है। जो जीवन की इस जागीर को संभालना सीख जाता है, उसे फिर किसी चीज का कोई अभाव नहीं रह सकता।’’
राजा आगे कुछ नहीं बोल पाए।