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गुरु-शिष्य का सम्बन्ध देह का नहीं, आत्मा का होता है: साध्वी भाग्यश्री भारती

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 06 Jan, 2020 10:06 AM

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आदि से आज तक, वैदिक से आज तक गुरु-शिष्य का शाश्वत संबंध सदा स्थायी रहा है। गुरु-शिष्य की इसी शाश्वत परिभाषा से रू-ब-रू करवाने के लिए दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, नूरमहल

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नूरमहल (शर्मा): आदि से आज तक, वैदिक से आज तक गुरु-शिष्य का शाश्वत संबंध सदा स्थायी रहा है। गुरु-शिष्य की इसी शाश्वत परिभाषा से रू-ब-रू करवाने के लिए दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, नूरमहल आश्रम में मासिक भंडारे के दौरान श्री आशुतोष महाराज की शिष्या साध्वी भाग्यश्री भारती ने बताया कि गुरु-शिष्य के संबंध में प्रखरता किसी बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक आधार पर आती है। यह देह का नहीं, आत्मा का संबंध होता है।

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हम जितना अपने भीतर का गोता लगाएंगे, उतना ही अपने गुरु के साथ जुड़ते जाएंगे और जब हम गुरु के साथ भीतर से जुड़ते हैं तो न केवल गुरु के संदेशों को समझते हैं, बल्कि गुरु स्वयं हमारी प्ररेणा बनकर हमें इस पर चलाते हैं, इसलिए हमें साधना के माध्यम से गुरु के साथ भीतर से संबंध बनाना चाहिए। स्वामी गुरुकिरपानंद ने बताया कि गुरु और शिष्य का रिश्ता श्रद्धा और विश्वास रूपी दो स्तंभों के आधार पर टिका होता है। इनके बिना साधक के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।  

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संसार में सभी रिश्तों के प्रेम को प्राप्त करने का कोई न कोई विकल्प जरूर होता है, लेकिन गुरु के प्रेम का कोई विकल्प नहीं होता। गुरु का प्रेम केवल गुरु से ही प्राप्त किया जा सकता है। अगर किसी के पिता न हो तो किसी भी वृद्ध पुरुष को सम्मान देकर उससे पिता का प्रेम प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन गुरु का कोई विकल्प नहीं। अगर एक शिष्य गुरु से अध्यात्म की दौलत को प्राप्त करना चाहता है तो उसकी पहली शर्त है समर्पण, बिना समर्पण के कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। 
 

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