Edited By Niyati Bhandari,Updated: 04 Nov, 2021 10:27 AM
हर साल दीवाली पर पटाखों पर प्रतिबंध को लेकर बहस शुरू हो जाती है। इस बार भी लोगों को ‘ग्रीन क्रैकर्स’ चलाने के लिए ही प्रोत्साहित किया जा रहा है जो पर्यावरण को आम पटाखों जितना नुक्सान नहीं पहुंचाते और
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Diwali Patakha History: हर साल दीवाली पर पटाखों पर प्रतिबंध को लेकर बहस शुरू हो जाती है। इस बार भी लोगों को ‘ग्रीन क्रैकर्स’ चलाने के लिए ही प्रोत्साहित किया जा रहा है जो पर्यावरण को आम पटाखों जितना नुक्सान नहीं पहुंचाते और ध्वनि प्रदूषण भी कम करते हैं परंतु क्या आप जानते हैं कि सबसे पहले पटाखे कैसे बने और भारत में इनका उपयोग कब शुरू हुआ था।
यूं बने पटाखे
इतिहास में पटाखों का पहला प्रमाण चीन में मिलता है जहां बांस को लगातार गर्म करने पर वह धमाके के साथ फटता था। इसके बाद पटाखों का आविष्कार एक दुर्घटना के कारण चीन में ही हुआ। मसालेदार खाना बनाते समय एक रसोइए ने गलती से ‘साल्टपीटर’ (पोटैशियम नाईट्रेट) आग पर डाल दिया।
इससे उठने वाली लपटें रंगीन हो गईं जिससे लोगों की उत्सुकता बढ़ी। फिर मुख्य रसोइए ने ‘साल्टपीटर’ के साथ कोयले व सल्फर का मिश्रण आग के हवाले कर दिया जिससे काफी तेज आवाज के साथ रंगीन लपटें उठीं। बस, यहीं से आतिशबाजी यानी पटाखों की शुरूआत हुई।
कुछ चीनी रसायनशास्त्रियों ने चारकोल, सल्फर आदि मिलाकर कच्चा बारूद बनाया और कागज में लपेट कर ‘फायर पिल’ बनाई।
ये कागज के बम थे जिनका उपयोग वे दुश्मनों को डराने के लिए करते थे।
कागज के पटाखे इजाद करने के 200 साल बाद चीन में हवा में फूटने वाले पटाखों का निर्माण शुरू हो गया। इन पटाखों का उपयोग युद्ध के अलावा आतिशबाजी के रूप में एयर शो के लिए होने लगा।
यूरोप में पटाखे
यूरोप में पटाखों का चलन 1258 ईस्वी में शुरू हुआ था। यहां सबसे पहले पटाखों का उत्पादन इटली ने किया। जर्मनी के लोग युद्ध के मैदानों में इन बमों का इस्तेमाल करते थे।
इंगलैंड में पहली बार इनका उपयोग समारोहों में किया गया। महाराजा चार्ल्स (पंचम) अपनी हरेक विजय का जश्न आतिशबाजी करके मनाते थे।
इसके बाद 14वीं सदी के शुरू होते ही लगभग सभी देशों ने बम बनाने का काम शुरू कर दिया। अमरीका में इसकी शुरूआत 16वीं शताब्दी में सेना ने की थी। पश्चिमी देशों ने हाथ से फैंके जाने वाले बम बनाए। बंदूकें और तोप भी इसी कारण बनी थीं।
भारत में पटाखे
बारूद की जानकारी भारतीयों को बहुत पहले से थी। ईसा पूर्व काल में रचे गए चाणक्य के अर्थशास्त्र में एक ऐसे चूर्ण का जिक्र है जो तेजी से जलता और तेज लपटें पैदा करता था।
इसे एक नलिका में ठूंस दिया जाए तो पटाखा बन जाता था। बंगाल के इलाके में बारिश के मौसम के बाद कई इलाकों में सूखती हुई जमीन पर ही लवण की एक परत बन जाती थी। हालांकि, इसका अधिक उपयोग नहीं किया गया।
भारत में मुगलों के दौर में पटाखे खूब इस्तेमाल होने लगे। तब शादी या दूसरे जश्न में भी आतिशबाजी होती थी।
अंग्रेजों के शासन के दौरान भी उत्सवों में आतिशबाजी करना काफी लोकप्रिय हुआ। 19वीं सदी में पटाखों की मांग बढऩे का ही नतीजा था कि कई फैक्टरियां लगीं।
भारत में पटाखों की पहली फैक्टरी 19वीं सदी में कोलकाता में लगी। बाद में भुखमरी और सूखे की समस्या से जूझ रहे शिवकाशी (तमिलनाडु) के 2 भाई शणमुगा और पी. नायर नाडर कोलकाता की एक माचिस फैक्टरी में नौकरी के लिए पहुंचे। वहां के कामकाज को समझने और सीखने के बाद इन्होंने शिवकाशी लौट कर अपनी खुद की फैक्टरी शुरू की।
शिवकाशी का शुष्क मौसम पटाखे बनाने के लिए बहुत फायदेमंद साबित हुआ। आज शिवकाशी ही देश में पटाखे बनाने का सबसे बड़ा केन्द्र है।
अब ग्रीन पटाखों से दीवाली
दीवाली पर पटाखों की वजह से होने वाले प्रदूषण के कारण कुछ सालों से इन्हें कम चलाने को प्रोत्साहित किया जा रहा है और इन पर बैन भी लग रहा है। इसे देखते हुए अब कई प्रकार के ग्रीन पटाखे बाजार में मिलने लगे हैं जो आम पटाखों से होने वाले प्रदूषण को कम करते हैं और साथ ही हानिकारक कैमिकल और ध्वनि प्रदूषण भी कम फैलाते हैं।