Dr Sarvepalli Radhakrishnan Birthday: जानें, शिक्षक दिवस मनाने का आरंभ कैसे हुआ

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 05 Sep, 2024 10:32 AM

dr sarvepalli radhakrishnan birthday

गुरु-शिष्य परम्परा भारत में प्राचीन समय से चली आ रही है। गुरुओं की महिमा का वृतांत ग्रंथों में भी मिलता है। यद्यपि माता-पिता और परिवार को बच्चे के प्रारम्भिक विद्यालय का दर्जा दिया जाता है, लेकिन जीने का

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Dr Sarvepalli Radhakrishnan Birthday: गुरु-शिष्य परम्परा भारत में प्राचीन समय से चली आ रही है। गुरुओं की महिमा का वृतांत ग्रंथों में भी मिलता है। यद्यपि माता-पिता और परिवार को बच्चे के प्रारम्भिक विद्यालय का दर्जा दिया जाता है, लेकिन जीने का असली सलीका उसे शिक्षक ही सिखाता है। समाज के शिल्पकार कहे जाने वाले शिक्षकों का महत्व यहीं समाप्त नहीं होता, क्योंकि वे न सिर्फ विद्यार्थी को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि उसके सफल जीवन की नींव भी उन्हीं के हाथों रखी जाती है। शिक्षक उस माली के समान है, जो एक बगीचे को भिन्न-भिन्न रूप-रंग के फूलों से सजाता है। जो छात्रों को कांटों पर भी मुस्कुराकर चलने को प्रोत्साहित करता है। उन्हें जीने की वजह समझाता है। शिक्षक के लिए सभी छात्र समान होते हैं और वह सभी का कल्याण चाहता है। 

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शिक्षक ही वह धुरी होता है, जो विद्यार्थी को सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए बच्चों की अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। वह प्रेरणा की फुहारों से बालक रूपी मन को सींचकर उनकी नींव को मजबूत करता है तथा सर्वांगीण विकास के लिए उनका मार्ग प्रशस्त करता है। 

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शिक्षकों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए किसी एक दिन की जरूरत नहीं

किताबी ज्ञान के साथ नैतिक मूल्यों व संस्कार रूपी शिक्षा के माध्यम से एक गुरु ही शिष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण करता है। ऐसी परम्परा हमारी संस्कृति में थी, इसलिए कहा गया है कि- ‘‘गुरुब्र्रह्मा, गुरुॢवष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा, गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।’’

शिक्षक अपने शिष्य के जीवन के साथ-साथ उसके चरित्र निर्माण में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करना बहुत ही विशाल और कठिन कार्य है। व्यक्ति को शिक्षा प्रदान करने के साथ-साथ उसके चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण करना उसी प्रकार का कार्य है, जैसे कोई कुम्हार मिट्टी से बर्तन बनाने का कार्य करता है, इसी प्रकार शिक्षक अपने छात्रों को शिक्षा प्रदान करने के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व का निर्माण भी करते हैं। 

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इसका तात्पर्य है कि शिक्षक उस कुम्हार की तरह है जो अपने छात्र रूपी घड़े की कमियों को दूर करने के लिए भीतर से हाथ का सहारा देकर बाहर से थापी से चोट करता है। ठीक इसी तरह शिक्षक भी कभी-कभी छात्रों पर क्रोध करके भी उसके चरित्र का निर्माण करते हैं तथा उन्हें बेहतर मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। 

यही वजह है कि शिक्षक और शिक्षक दिवस का महत्व भारतीय संस्कृति में कहीं ज्यादा है। विश्व में अलग-अलग दिन मनाया जाता है शिक्षक दिवस। भारत में ‘शिक्षक दिवस’ 5 सितम्बर को मनाया जाता है, वहीं ‘अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक दिवस’ का आयोजन 1994 से 5 अक्तूबर को होता आया है। यूनेस्को ने 5 अक्तूबर को ‘अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक दिवस’ घोषित किया था। 

इसी प्रकार विश्व के लगभग 100 देशों में अलग-अलग दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। कुछ देशों में इस दिन अवकाश रहता है तो कहीं-कहीं यह कामकाजी दिन ही रहता है। 

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भारत में शिक्षक दिवस
भारत में शिक्षक दिवस मनाने की परम्परा साल 1962 में शुरू हुई थी जब देश के पहले उप-राष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति भारत रत्न डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन मनाने के लिए उनके छात्रों ने ही उनसे इस बात को लेकर स्वीकृति ली थी। 

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तब उन्होंने कहा था, ‘‘मेरा जन्मदिन मनाने के बजाए इसे शिक्षकों द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किए गए योगदान और समर्पण को सम्मानित करते हुए मनाएं, तो मुझे सबसे ज्यादा खुशी होगी।’’

डा. सर्वपल्ली  राधाकृष्णन ने करीब 40 साल तक शिक्षक के रूप में कार्य किया था। डा. राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर, 1888 को तमिलनाडु के तिरूतनी नामक गांव में हुआ। उनका बचपन बेहद गरीबी में बीता परंतु वह बचपन से ही मेधावी छात्र थे। गरीबी में भी वह पढ़ाई में पीछे नहीं रहे और फिलॉसफी में एम.ए. किया, फिर इसके बाद 1916 में मद्रास रैजीडैंसी कॉलेज में फिलॉसफी के असिस्टैंट प्रोफैसर के रूप में कार्य किया, फिर कुछ साल बाद प्रोफैसर बने। 

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देश के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के साथ ही कोलंबो एवं लंदन यूनिवर्सिटी ने उन्हें मानक उपाधियों से सम्मानित किया। 1949-1952 तक वह मास्को में भारत के राजदूत रहे और 1952 में भारत के पहले उपराष्ट्रपति बनाए गए जबकि 1962 में देश के दूसरे राष्ट्रपति बने। डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन कहते थे, ‘‘पुस्तकें वे साधन हैं, जिनके माध्यम से हम विभिन्न संस्कृतियों के मध्य पुल बनाने का कार्य कर सकते हैं।’’ 

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संत कबीर के शब्दों से भारतीय संस्कृति में गुरु के उच्च स्थान की झलक मिलती है। भारतीय बच्चे प्राचीन काल से ही आचार्य देवो भव: का बोध-वाक्य सुनकर ही बड़े होते हैं। कच्चे घड़े की भांति स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को जिस रूप में ढालो, वे ढल जाते हैं। वे स्कूल में जो सीखते हैं या जैसा उन्हें सिखाया जाता है, वे वैसा ही व्यवहार करते हैं। उनकी मानसिकता कुछ वैसी ही बन जाती है, जैसा वे अपने आस-पास होता देखते हैं। 

गुरुओं को हमेशा विशेष स्थान दिया गया है। यहां तक कि भगवान और माता-पिता से भी ऊपर स्थान दिया गया है। कबीर दास द्वारा लिखी गई ये पंक्तियां जीवन में गुरु के महत्व को वर्णित करने के लिए काफी हैं :  गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो मिलाए।

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आज हमारा देश तेजी से सफलता के मार्ग पर अग्रसर है, जिसका श्रेय हमारे शिक्षकों को ही जाता है। आज विश्व भर में भारतीय हर क्षेत्र में अपने देश का नाम रोशन कर रहे हैं। विश्व का हर चौथा डॉक्टर या इंजीनियर एक भारतीय है। विज्ञान के क्षेत्र में हम अमरीका और रूस जैसी महाशक्तियों के समकक्ष खड़े हैं। राजनीति, अर्थशास्त्र, कला आदि क्षेत्रों में भी भारतीयों के कार्य को विश्व भर में सराहा जाता है और न जाने कितने ही भारतीय इन क्षेत्रों में विश्व के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। 

कुछ शिक्षक ऐसे हुए जिन्होंने अपने कार्यों से भारत को सफलता की ऊंचाइयों तक ले जाने का कार्य किया। इनमें राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद, डा. भीम राव अम्बेदकर, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं।

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