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गुरुदेव श्री श्री रविशंकर: मां पृथ्वी को स्वस्थ रखने की भूली हुई कुंजी है श्रद्धा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 22 Apr, 2025 07:32 AM

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Earth Day 2025: पृथ्वी केवल अंतरिक्ष में तैरता हुआ एक निर्जीव पत्थर नहीं है। यह सजीव है। सभी प्राचीन और जनजातीय संस्कृतियों को यह रहस्य पता था। इसी कारण प्राचीन हिन्दू ग्रंथों में भी पृथ्वी को केवल पृथ्वी नहीं कहा गया बल्कि भूमि देवी अर्थात मां धरती...

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Earth Day 2025: पृथ्वी केवल अंतरिक्ष में तैरता हुआ एक निर्जीव पत्थर नहीं है। यह सजीव है। सभी प्राचीन और जनजातीय संस्कृतियों को यह रहस्य पता था। इसी कारण प्राचीन हिन्दू ग्रंथों में भी पृथ्वी को केवल पृथ्वी नहीं कहा गया बल्कि भूमि देवी अर्थात मां धरती के रूप में सम्मानित किया गया। नदियां केवल जल-स्रोत नहीं थीं। उन्हें देवी के रूप में पवित्र माना गया और पूजा गया। पेड़, पर्वत और जानवर यहां तक कि प्रकृति की प्रत्येक वस्तु को पूजनीय माना गया।

हमें अपनी आध्यात्मिक जड़ों की ओर लौटना होगा और इस चेतना को फिर से जगाना होगा। हमें यह समझना होगा कि कैसे मानसिक अवस्था किसी व्यक्ति को पर्यावरण के प्रति असंवेदनशील बना देती है और कैसे उसे स्नेही और संरक्षक बना देती है। जब भीतर करुणा और संवेदना जगती है तो वह हमारे व्यवहार में झलकती है और एक पवित्रता की भावना अपने आप आती है। संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस ग्रह के प्रति अपनापन महसूस करें। पेड़ों, नदियों और लोगों को अपना मानें और प्रकृति तथा सभी लोगों में ईश्वर को देखें।

एक संवेदनशील व्यक्ति प्रकृति के बारे में चिंता किए बिना रह ही नहीं सकता। जिस नदी को आप पूजते हैं, उसे प्रदूषित करने से रोकने के लिए किसी नियम के पालन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जिस पेड़ को आप नमन करते हैं, उसे काटने से रोकने के लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं होती। जिसे आप पवित्र मानते हैं, उसका दोहन आप नहीं करते बल्कि आप उसकी रक्षा करते हैं, उसका ध्यान रखते हैं, उसका आदर करते हैं। 

आध्यात्मिकता हमारे अंदर कर्तव्य की भावना जगाती है। अपने लिए दूसरों के लिए और इस धरती के लिए। यह हमारे पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता को गहराई देती है। जब हम अपनी प्रकृति से दूर होते हैं, तभी हम प्रकृति को प्रदूषित करने लगते हैं। केवल परंपरा के लिए नहीं बल्कि इस ग्रह के भविष्य के लिए हमें विचार करना होगा और इसी चेतना को फिर से जगाना होगा। प्रदूषण केवल फैक्ट्रियों या वाहनों से ही नहीं शुरू होता बल्कि मन से शुरू होता है। जब वह तनाव, नकारात्मकता और लालच से भरा होता है। ऐसा मन न तो संवेदनशील होता है, न ही सचेत। वह केवल अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में दौड़ता रहता है।

अत्यधिक पाने की लालसा, कर्मों में लापरवाही और परिणामों की अवहेलना ये सब इस आंतरिक दरिद्रता के लक्षण हैं। जब आप किसी वस्तु को पवित्र मानते हैं तो उसके प्रति श्रद्धा, सजगता और सावधानी की भावना जन्म लेती है। पर्यावरण के प्रति सजग होना हमारी प्रकृति में निहित है यह कोई बाहर से सिखाई गई बात नहीं है। हम अक्सर सतत विकास के द्वारा पर्यावरण को बचाने की बात करते हैं।

सतत विकास वही है जिसमें किसी भी परियोजना के दीर्घकालिक प्रभाव और लाभों को ध्यान में रखा जाए। अगर हम प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करते रहेंगे, तो वह जीवन का आधार को ही नष्ट कर देगा। विकास का उद्देश्य और मंशा यह होनी चाहिए कि वह जीवन का समर्थन करे, उसे पुनर्जीवित करे और उसे टिकाऊ बनाए।

तभी विकास की प्रक्रिया एक जागरूक प्रयास बन जाएगी। जो इस ग्रह और इसके संसाधनों की रक्षा करे। श्रद्धा ही वह तत्त्व है जो चेतना को कर्म में बदलता है। जब कोई व्यक्ति केवल बौद्धिक रूप से ही नहीं बल्कि भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से भी संवेदनशील हो जाता है तो वह धरती पर हल्के पांव चलता है, विवेकपूर्ण उपभोग करता है।

जब हम इस पवित्र ग्रह को बचाने की दिशा में काम कर रहे हैं, तब हमें प्रकृति से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। जितना अधिक आप प्रकृति की ओर ध्यान देते हैं, उतना अधिक आप उससे कुछ सीख पाते हैं। उदाहरण के लिए यदि आप किसी जंगल में जाएं, तो देखेंगे कि वहां अनगिनत जानवर रहते हैं लेकिन वे उस जगह को मनुष्यों की तरह गंदा नहीं करते।

प्रकृति में पांचों तत्त्व एक-दूसरे के विरोध में हैं। पशु जगत में कई प्रजातियां एक-दूसरे के शत्रु हैं फिर भी प्रकृति में एक अद्भुत संतुलन है। मिट्टी के कीड़े (अर्थवर्म्स) इस बात का उत्कृष्ट उदाहरण हैं कि कैसे प्रकृति अपशिष्ट को पचाकर पुनर्चक्रित करती है। लेकिन जब हम इस संतुलन को अंधाधुंध उपभोग, जंगलों की कटाई और संसाधनों के शोषण से बिगाड़ते हैं तो प्रकृति बाढ़, सूखा और जलवायु परिवर्तन के रूप में प्रतिक्रिया देती है।

आर्ट ऑफ लिविंग में हमने विश्व भर में अनेक परियोजनाएं की हैं नदियों का पुनर्जीवन, 100 मिलियन से अधिक पेड़ों का रोपण, प्राकृतिक खेती और पर्यावरण प्रेमी जीवनशैली को बढ़ावा देना और यह सब उस साधक में संवेदनशीलता और जागरूकता को जगाने पर आधारित हैं, जो आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होता है।

बिना इस आध्यात्मिक चेतना के कार्य केवल सतही रह जाते हैं। जब आप प्रकृति का सम्मान करते हैं और उसकी पवित्रता को बनाए रखने का प्रयास करते हैं, तब प्रकृति भी इस ग्रह पर आपकी उपस्थिति का उत्सव मनाती है।

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