Edited By Niyati Bhandari,Updated: 14 May, 2023 08:27 AM
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महर्षि अगस्त्य जी के शिष्य सुतीक्ष्ण गुरु आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे। विद्याध्ययन समाप्त होने पर एक दिन गुरु जी ने कहा, ‘‘बेटा !
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Religious Katha: महर्षि अगस्त्य जी के शिष्य सुतीक्ष्ण गुरु आश्रम में रहकर अध्ययन करते थे। विद्याध्ययन समाप्त होने पर एक दिन गुरु जी ने कहा, ‘‘बेटा ! तुम्हारा अध्ययन समाप्त हुआ। अब तुम विदा हो सकते हो। सुतीक्ष्ण ने कहा, ‘‘गुरुदेव! विद्याध्ययन के बाद गुरु जी को गुरु दक्षिणा देनी चाहिए। अत: आप कुछ आज्ञा करें।’’
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गुरु बोले, ‘‘बेटा, तुमने मेरी बहुत सेवा की है। सेवा से बढ़ कर कोई भी गुरु दक्षिणा नहीं। अत: जाओ, सुखपूर्वक रहो।’’
सुतीक्ष्ण ने आग्रहपूर्वक कहा, ‘‘गुरुदेव, बिना गुरु दक्षिणा दिए शिष्य को विद्या फलीभूत नहीं होती। सेवा तो मेरा धर्म ही है, आप किसी अत्यंत प्रिय वस्तु के लिए आज्ञा अवश्य करें।’’
गुरु जी ने देखा कि सुदृढ़ निष्ठावान शिष्य मिला है तो हो जाय कुछ कसौटी। गुरु जी ने कहा, ‘‘अच्छा, देना ही चाहता है तो गुरु दक्षिणा में सीता-राम जी को साक्षात ला दें।’’
सुतीक्षण गुरु जी के चरणों में प्रणाम करके जंगल की ओर चल दिया। जंगल में जाकर घोर तपस्या करने लगा। वह पूरे मन एवं हृदय से गुरु मंत्र के जप, भगवन्नाम के कीर्तन एवं ध्यान में तल्लीन रहने लगा।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, सुतीक्ष्ण के धैर्य, समता और गुरु वचन के प्रतिनिष्ठा और अडिगता में बढ़ौत्तरी होती गई। कुछ समय पश्चात भगवान मां सीता सहित वहां पहुंचे जहां सुतीक्ष्ण ध्यान में तल्लीन होकर बैठा था।
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प्रभु ने आकर उसके शरीर को हिलाया-डुलाया, पर उसे कोई होश नहीं था। तब राम जी ने उसके हृदय में अपना चतुर्भुजी रूप दिखाया तो उसने झट से आंखें खोल दीं और श्री राम को दंडवत प्रणाम किया।
भगवान श्री रामचंद्र जी ने उसे अविरल भक्ति का वरदान दिया। सुतीक्ष्ण गुरु जी को गुरु दक्षिणा देने हेतु सीता राम जी को लेकर गुरु आश्रम की ओर निकल पड़ा।
महर्षि अगस्त्य के आश्रम में जाकर श्री राम जी एवं सीता माता उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा में बाहर खड़े हो गए परंतु सुतीक्ष्ण को तो आज्ञा लेनी नहीं थी उसने तुरंत अंदर जाकर गुरु चरणों में साष्टांग दंडवत करके सरल, विनम्र भाव से कहा, ‘‘गुरुदेव! मैं गुरु दक्षिणा देने आया हूं। सीता राम जी द्वार पर खड़े आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’
अगस्त्य जी का हृदय शिष्य के प्रति बरस पड़ा। गुरु की कसौटी में शिष्य उर्त्तीण हो गया था। गुरु को पूर्ण कृपा बरसाने के लिए पात्र मिल गया था।
उन्होंने शिष्य को गले लगाया और पूर्ण गुरुकृपा का अपना अमृत कुंभ शिष्य के हृदय में उड़ेल दिया। अगस्त्य जी सुतीक्ष्ण को साथ लेकर बाहर आए और श्री रामचंद्र जी व सीता माता का स्वागत-पूजन किया।
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धन्य हैं सुतीक्ष्ण जी जिन्होंने गुरु आज्ञा पालन में तत्पर होकर गुरु दक्षिणा में भगवान को ही लाकर अपने गुरु के द्वार पर खड़ा कर दिया। जो दृढ़ता तत्पर और ईमानदारी से गुरु आज्ञा पालन में लग जाता है, उसके लिए प्रकृति भी अनुकूल बन जाती है। और तो और, भगवान भी उसके संकल्प को पूरा करने में सहयोगी बन जाते हैं।
धन्य हैं ऐसे शिष्य जो धैर्य एवं सुदृढ़ गुरु निष्ठा का परिचय देते हुए तत्परता से गुरु कार्य में लगे रहते हैं और आखिर गुरु की पूर्ण प्रसन्नता, पूर्ण संतोष एवं पूर्ण कृपा पाकर जीवन का पूर्ण फल प्राप्त कर लेते हैं।
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