गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर: इन्द्रियों पर विजय का उत्सव है विजयदशमी

Edited By Prachi Sharma,Updated: 12 Oct, 2024 09:44 AM

gurudev sri sri ravi shankar

विजयदशमी का अर्थ यह है कि हमें दसों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त हो। विजय को दशमी के साथ क्यों जोड़ा गया है, हमें यह सोचना चाहिए। हमारी दस इंद्रियां हैं और इन दसों इन्द्रियों पर विजय होने पर आत्मज्ञान होता है

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Vijayadashami: विजयदशमी का अर्थ यह है कि हमें दसों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त हो। विजय को दशमी के साथ क्यों जोड़ा गया है, हमें यह सोचना चाहिए। हमारी दस इंद्रियां हैं और इन दसों इन्द्रियों पर विजय होने पर आत्मज्ञान होता है। जो हमारी पंच ज्ञानेंद्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों से परे हैं, वह आत्मा है, वही ईश्वर है । 

आत्मा मल, आवरण और विक्षेप इस तीन चीजों से ढकी हुई है। मल माने गंदगी,  मन की चंचलता, तनाव, एकाग्रता की कमी, मन का इधर-उधर भटकना विक्षेप है और आवरण माने मन पर पर्दा लग जाना। जब तक ये तीनों नहीं मिटते या हल्के नहीं होते तब तक जीवन में आनंद की अनुभूति नहीं होती। जब भी हम आनंदित होते हैं तब समझिये मल हट गया और  विक्षेप समाप्त हो गया और आवरण अगर पूरा न भी हटा हो तो कम से कम वह ढीला या पतला हो गया। जब पूरा आवरण हट जाता है तब हम मुक्त हो जाते हैं। 

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मल, आवरण और विक्षेप को हटाने के लिए कुछ प्रयास हम खुद कर सकते हैं और जो हम नहीं कर सकते वह हमारे लिए किया जाता है। जैसे आप कहीं गिर जाते हैं और आपको चोट लग जाती है तो छोटी सी चोट को तो आप अपने आप ठीक कर लेंगे मगर यदि आपकी पीठ में चोट लग गयी हो जहां आप पहुंच ही न पा रहे हों तब आपको किसी की मदद की ज़रूरत पड़ती है। कुछ चोटों को हम ख़ुद ही ठीक करते हैं और कुछ चीजों के लिए हमें मदद लेनी पड़ती है। मल दो प्रकार के  होते हैं- एक मल हम खुद ही साफ कर सकते हैं और दूसरा जो हम खुद नहीं साफ कर सकते। 

ऐसे ही कुछ विक्षेपों को हम ज्ञान के द्वारा खुद हटा सकते हैं। कभी-कभार हमारा मन इधर-उधर भटकता है या आलतू-फालतू बातों में फंस जाता है तो उससे हमारा आनंद ढक जाता है। जैसे आपको ध्यान में बैठना है और आपके बगल में बैठा आदमी खर्राटे मार रहा है या छींक रहा है तो उस आदमी की थोड़ी सी चहल-पहल से आप अपनी मन की शांति खो बैठते हैं । यही विक्षेप है। कुछ विक्षेपों को ज्ञान से हटाया जा सकता है और कुछ को हटाना हमारे हाथ में नहीं है फिर चाहे हम लाख कोशिश कर लें वह हटता ही नहीं है। 

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आवरण सिर्फ कृपा से ही हट सकता है। उसको हटाने में आप कुछ भी नहीं कर सकते। जब तक आवरण नहीं हटता तब तक जीवन में गति नहीं हो सकती। इसीलिए कहते हैं ‘गुरु बिना गति नहीं ।’ गुरु की कृपा से मल भी हटता है, आवरण भी हटता है और विक्षेप भी हट जाता है। गुरु कृपा का अर्थ यह नहीं है कि चौबीस घंटे आप गुरू के सामने ही बैठे रहें । गुरु के मन को जानकर उनके ढंग से चलना चाहिए, उनके अंदर की बात समझना चाहिए। कई बार इसमें खूब, तपस्या करनी पड़ती है, तो यदि ऐसा करना पड़े तो करें। जब भी कोई मुश्किल सामने आती है तब ही मन उचाट करता है, वह विद्रोह करता है तो उस मन के प्रति सजग हो जाएं, यह समझ लें कि ‘अरे यह मन विद्रोह कर रहा है।’ जब तक ‘अहम्’ को अच्छे से रगड़-रगड़ करके पीसा नहीं जाता है, तब तक वह पारदर्शी नहीं होता। मन को पारदर्शी होना चाहिए तभी आवरण हटता है। अंदर से फूल जैसे हो जाएं तब आपको कोई चीज नहीं हिलायेगी। उतनी परिपक्वता आने में समय लगता है। सुनने में तो लगता है कि बड़ा आसान है लेकिन यह आसान नहीं है। इसलिए बहुत धैर्य रखना होगा। इसमें बहुत सावधानी और सहनशीलता की आवश्यकता होती है । 

प्रकृति ही हमारी गुरु है, प्रकृति हमको सिखाती है। प्रकृति हमको थप्पड़ मार-मार कर सीधा कर देती है। यह भी कृपा है इसीलिए कहते हैं कि हमारे मन, हमारे  चित्त की शुद्धि ही यज्ञ का लक्ष्य है। चित्त शुद्धि ही सबका लक्ष्य है। जो मल हम नहीं मिटा सकेंगे वह श्रद्धा के साथ एक यज्ञ में बैठने से मिट जाता है। जहां सत्व गुण होता है, वहां पर मन विक्षेप से एकदम दूर हो जाता है। 

हमारी संगत विक्षेप को बढ़ा भी सकती है और विक्षेप को ख़त्म भी कर सकती है। यदि आपके साथी ज्ञानी हों, वे आपको ज्ञान की तरफ खींचते हों तो आपका विक्षेप कम करेंगे और यदि वे आपको अज्ञान की तरफ खींचते हों, राग-द्वेष की तरफ खींचते तो आपका विक्षेप बढ़ता है वह कम नहीं होता। विक्षेप बढ़ने से आपको कोई लाभ नहीं होता। 

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मन में इतना विक्षेप रखकर ढोते रहेंगे तो परिस्थिति नहीं बदलेगी। कोई परिस्थिति बदलनी हो तो वह केवल सजगतापूर्वक कर्म से या प्रार्थना से संभव है, विक्षेप से नहीं। मन का विक्षेप केवल सत्संगति से, ज्ञान से, गुरु सान्निध्य से और  दैव सान्निध्य से दूर होता है। आवरण केवल कृपा से ही हट सकता है। जैसे-जैसे जीवन के कर्म कटते हैं, वैसे-वैसे पाप का आवरण भी मिटने लगता है ।

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