History of Chhath Puja: छठ से जुड़ी हैं ये प्राचीन कथाएं, जानें कैसे हुई इस पर्व की शुरुआत

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 31 Oct, 2022 08:03 AM

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History And Significance of Chhath Puja: हिन्दू  पंचांग के अनुसार, हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को छठ महापर्व मनाया जाता है। छठ पर्व

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History And Significance of Chhath Puja: हिन्दू  पंचांग के अनुसार, हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को छठ महापर्व मनाया जाता है। छठ पर्व भारत के कुछ कठिन पर्वों में से एक है जो 4 दिनों तक चलता है। इस महापर्व में 36 घंटे निर्जला व्रत रख सूर्य देव और छठी मैया की पूजा की जाती है और उन्हें अर्घ्य दिया जाता है। यह व्रत मनोकामना पूर्ति के लिए भी किया जाता है। महिलाओं के साथ पुरुष भी यह व्रत करते हैं। कार्तिक माह की चतुर्थी तिथि पर नहाय-खाय होता है, इसके बाद दूसरे दिन खरना और तीसरे दिन डूबते सूर्यदेव को अर्घ्य दिया जाता है।

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चौथे दिन उगते सूर्यदेव को अर्घ्य देने के बाद व्रत का पारण किया जाता है। मान्यता के अनुसार, छठ पूजा और व्रत परिवार की खुशहाली, स्वास्थ्य और संपन्नता के लिए रखा जाता है। चार दिन के इस व्रत पूजन के कुछ नियम बेहद कठिन होते हैं, जिनमें से सबसे प्रमुख 36 घंटे का निर्जला व्रत है। महापर्व में व्रती के लिए कुछ कठिन नियम हैं, जैसे छोटे बच्चों से दूर पूजा का सामान रखा जाता है ताकि बच्चे उसे छू नहीं सकें। जब तक पूजा पूर्ण नहीं हो जाती है तब तक बच्चों व अन्य लोगों को प्रसाद नहीं खिलाया जाता है।

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Chhath Puja Vrat Katha 2022 राजा प्रियंवद व मालिनी की कहानी
 इस महापर्व के पीछे भी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। यह त्योहार विशेष रूप से बिहार, पूर्वांचल, झारखंड आदि क्षेत्रों में विशेष धूमधाम के साथ मनाया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी। तब महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को यज्ञ आहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इससे उन्हें पुत्र हुआ, लेकिन वह मृत पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरी पूजा करो और इसके लिए दूसरों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।

भगवान राम ने की थी सूर्यदेव की आराधना
एक दूसरी कथा के अनुसार, लंका पर विजय पाने के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की पूजा की। सप्तमी को सूर्योदय के वक्त फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। यही परंपरा अब तक चली आ रही है।

कर्ण ने शुरू की सूर्य देव की पूजा
एक अन्य कथा यह भी है कि  छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है।

छठ पर्व से पांडवों को मिला राजपाट
छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है। इसके अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। उनकी मनोकामनाएं पूरी हुई और पांडवों को राजपाट वापस मिल गया। लोक परंपरा के अनुसार, सूर्यदेव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई है।

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छठ पूजा प्रकृति प्रेम करना भी सिखाता है
 छठ महापर्व के अनुष्ठान के दौरान हरे कच्चे बांस की बहंगी, मिट्टी का चूल्हा, प्रकृति प्रदत फल, ईख सहित अन्य वस्तुओं के उपयोग का विधान है, जो आमजनों को प्रकृति की ओर लौट चलने के लिए प्रेरित करता है।

जीव-संरक्षण
छठ पूजा के अनुष्ठान के दौरान गाया जाने वाला पारंपरिक गीत केरवा जे फरेला घवध से ओहपर सुग्गा मंड़राय, सुगवा जे मरवो धनुख से सुग्गा जइहें मुरझाए..,रोवेली वियोग से, आदित्य होख ना सहाय.., जैसे गीत इस बात को दर्शाते हैं कि लोग पशु-पक्षियों के संरक्षण की याचना कर उनके अस्तित्व को कायम रखना चाहते हैं।

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