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Holi 2020: होली से होला मोहल्ला तक का सफर...

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 10 Mar, 2020 09:06 AM

holi 2020

होली भारत का प्रसिद्ध प्राचीन एवं प्रतीकमयी त्यौहार है, जो देशभर में भारी उत्साह, उमंग और उल्लास से मनाया जाता है। दशहरे की भांति होली का त्यौहार भी सच्चाई और नेकी की निर्माणकारी शक्तियों की बदी की विनाशकारी ताकतों पर

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होली भारत का प्रसिद्ध प्राचीन एवं प्रतीकमयी त्यौहार है, जो देशभर में भारी उत्साह, उमंग और उल्लास से मनाया जाता है। दशहरे की भांति होली का त्यौहार भी सच्चाई और नेकी की निर्माणकारी शक्तियों की बदी की विनाशकारी ताकतों पर हुई विजय का प्रतीक है। ‘होली’ का दूसरा नाम ‘फाग’ है अर्थात फाल्गुन माह या बसंत ऋतु। बसंत ऋतु उमंगों व खुशियों भरा त्यौहार है, जिसके आध्यात्मिक एवं अंतरीय भाव को श्री गुरु अर्जुन देव जी इस प्रकार कथन करते हैं : 

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गुरु सेवउ करि नमसकार।
आजु हमारै मंगलचार।।
आजु हमारै महा अनंद।।
चित लथी भेटे गोबिंद।।1।।
आजु हमारै ग्रिहि बसंत।।
गुन गाए प्रभ तुम्ह बेअंत।।1।। रहाउ।।
आजु हमारै बने फाग।।
प्रभ संगी मिलि खेलन लाग।।
होली कीनी संत सेव।।
रंगु लागा अति लाल देव।। (पन्ना 1980)

अर्थात गुरसिखों की आध्यात्मिक मंडलों की आनंदमयी होली का अजब नजारा बांधा गया है और मनुष्य को नाम रूपी रंग में रंगे जाने के लिए प्रेरित किया गया है।

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चेत बदी एकम को मनाया जाने वाला होला-मोहल्ला त्यौहार खालसा पंथ के सृजक श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की निजी तथा मौलिक खोज है और यह खालसा पंथ को इनकी अद्वितीय देन है। गुरु जी ने अनुभव कर लिया था कि होली का त्यौहार खुशियों एवं उमंगों का त्यौहार है, मगर इसे मनाने के ढंग-तरीके बहुत बिगड़ चुके हैं। एक-दूसरे पर गंदगी उछाली जाने लगी थी। कभी-कभी इस कारण गाली-गलौच तक की नौबत भी आ जाती थी। 

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने समय की नब्ज को पहचानते हुए त्यौहारों को मनाने के ढंग-तरीके ही बदल दिए। पहले 1756 विक्रमी की बैसाखी वाले दिन आपने खालसा पंथ की साजना की, जिसका परिणाम यह हुआ कि बैसाखी का अति खुशियों भरा दिन खालसे के प्रकट दिन के रूप में मनाया जाने लगा और इससे अगले ही वर्ष से होली के त्यौहार को होला-मोहल्ला के रूप में मनाने की परंपरा जारी की।  पहला होला-मोहल्ला वर्ष 1757 विक्रमी, चैत्र वदी एकम वाले दिन श्री आनंदपुर साहिब में होलगढ़ स्थान पर मनाया गया और वचन किया : 
औरन की होली मम होला।
कहयो क्रिपानिधि बचन अमोला।
(गुरुपद प्रेम प्रकाश कृत बाबा सुमेर सिंह) 

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जैसे रोजाना इस्तेमाल होने वाली कच्ची शब्दावली की जगह खालसे को आक्रामक एवं प्रभावशाली शब्द दिए गए हैं, बिल्कुल वैसे ही खालसे को ‘होली’ की जगह ‘होला-मोहल्ला’ मनाने का आदेश है। कवि निहाल सिंह ने इस बारे बहुत सुंदर छंद लिखा है :
बरछा, ढाल, कटारा, तेगा, कड़छा, देगा, गोला है। 
छका प्रसादि, सजा दसतारा,
अरु कर दौना टोला है।
सुभट, सुचाला, अर लक्ख बाहा,
कलगा, सिंघ सचोला है।
अपर मुछहिरा, दाढ़ा जैसे, तैसे होला बोला है।

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गुरु साहिब के आदेशानुसार, इस अवसर पर दूर-दूर से सिंह शूरवीर तथा सिख संगत होला-मोहल्ला मनाने के लिए श्री आनंदपुर साहिब एकत्रित होने लगी। भारी दीवान सजते और कथा कीर्तन के समागम होते। मेले का विशेष कार्यक्रम अस्त्रों-शस्त्रों के तरह-तरह के करतब दिखाना होता। सिंह अश्व-दौड़, गतकाबाजी, नेजाबाजी, तीरंदाजी आदि कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते। 

खालसा फौज को दो दलों में बांटा जाता और इनकी एक प्रकार की मसनूई (बनावटी) लड़ाई करवाई जाती। विजेता दल को ईनाम-सम्मान दिया जाता। खालसा फौज का नगर कीर्तन निकलता तो गुलाल, गुलाब, कस्तूरी आदि की बरसात की जाती। नगर के गली-बाजार और सिंहों के वस्त्र आदि लाल रंग में इतने रंग जाते कि चारों तरफ रंगीनियां ही नजर आतीं और सुगंध फैल जाती। हजूरी कवि भाई नंद लाल जी एक ऐसे ही होला-मोहल्ला का जिक्र अपनी फारसी पुस्तक ‘दीवानि गोया’ की गजल नंबर 32 में इस प्रकार करते हैं :
गुले होली ब बागे दहिर बू करद।
लबे चूं गुंचह रा फरखंदह खू करद।
गुलाबो, अंबरो, मुशको, अबीरो,
चु बारां बारशे अका सू बसू करद।
काहे पिचकारीए पुर कााफरानी,
कि हर बेरंग रा, खुस रंगो बू करद।
गुलाल अफशानी अका दसते मुबारक,
कामीनो आसमां रा सुरखरू करद।
दु आलम गशत रंगीं अका तुफैलश,
चु शाहम जामह रंगीं दर गुलू करद।

इन शे’रों में स्पष्ट जिक्र है कि गुलाब, कस्तूरी व अबीर सब तरफ बारिश की तरह बरसने लगे। केसर से भरी पिचकारी ने सबके सफेद वस्त्रों को सुंदर रंग में रंग दिया और सतगुरु जी ने अपने हाथों से गुलाल उड़ा-उड़ाकर धरती एवं आकाश को गहरा लाल कर दिया।

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होला-मोहल्ला त्यौहार विशेषत: श्री आनंदपुर साहिब और श्री हजूर साहिब नांदेड़ में मनाया जाता है। दोनों गुरुधामों पर लाखों की संख्या में सिख संगत एकत्रित होती है और हजूरी दीवानों (कीर्तन दरबार) की हाजिरी भरने के अलावा निहंग सिंहों के प्रदर्शन का भी लुत्फ उठाती है।

श्री हजूर साहिब नांदेड़ में विशेष घोड़े, जो मोहल्ले के नगर कीर्तन का नेतृत्व करते हैं, संगत का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। इस प्रकार झूलते निशान साहिब और शबद कीर्तन करती भजन मंडलियां वायुमंडल को आकर्षक और सुहावना बना देती हैं। गतका पार्टियां अपने अद्वितीय प्रदर्शन द्वारा सबका मन मोह लेती हैं।

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