Edited By Niyati Bhandari,Updated: 27 Jun, 2024 03:43 PM
समरांगण सूत्रधार, मानसार, विश्वकर्मा प्रकाश, नारद संहिता, बृहतसंहिता, वास्तु रत्नावली, भारतीय वास्तु शास्त्र, मुहूर्त मार्तंड आदि वास्तुज्ञान के भंडार हैं। अमरकोष हलायुध कोष के अनुसार वास्तुगृह निर्माण की
How to remove illness from house: समरांगण सूत्रधार, मानसार, विश्वकर्मा प्रकाश, नारद संहिता, बृहतसंहिता, वास्तु रत्नावली, भारतीय वास्तु शास्त्र, मुहूर्त मार्तंड आदि वास्तुज्ञान के भंडार हैं। अमरकोष हलायुध कोष के अनुसार वास्तुगृह निर्माण की वह कला है जो ईशान आदि कोण से आरंभ होती है और घर को विघ्नों, प्राकृतिक उत्पातों और उपद्रवों से बचाती है। ब्रह्मा जी ने विश्वकर्मा जी को संसार निर्माण के लिए नियुक्त किया था। इसका उद्देश्य गृह स्वामी को भवन शुभफल प्रदान करना और पुत्र, पौत्रादि, सुख, लक्ष्मी, धन और वैभव को बढ़ाने में सहायक होना था। वास्तु दोष से मुक्ति के लिए पंचतत्व- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश, चारों दिशाएं पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा चारों कोण नैऋत्य, ईशान, वायव्य, अग्रि एवं ब्रह्म स्थान (केंद्र) को संतुलित करना आवश्यक है। देखने में आ रहा है कि आजकल पुरुषों को पहले की तुलना में ज्यादा शारीरिक एवं मानसिक रोग हो रहे हैं।
आधुनिक तकनीकों के कारण आजकल छोटे या बड़े भवनों की बनावट पहले से भवनों की तुलना में सुंदर व भव्य तो जरूर हो गई है पर घरों की अनियमित आकार की बनावट के कारण ही उनमें वास्तुदोष उत्पन्न होते हैं, जो वहां रहने वालों को शारीरिक और मानसिक रोगी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह अटल सत्य है कि वास्तु का रोगों से अभिन्न संबंध है।
किसी भी भवन में उत्तर-पूर्वी भाग का संबंध जल तत्व से होता है। अत: स्वास्थ्य की दृष्टि से शरीर में जल तत्व के असंतुलित होने से अनेक व्याधियां उत्पन्न हो जाती हैं। अत: उत्तर-पूर्व को जितना खुला एवं हल्का रखेंगे उतना ही अच्छा है। इस दिशा में रसोई का निर्माण अशुभ है। रसोई निर्माण करने पर उदर जनित रोगों का सामना करना पड़ता है। परिवार के सदस्यों में तनाव बना रहता है। इस दिशा में भूमिगत जल भंडारण की व्यवस्था तथा घर में आने वाली जलापूर्ति की पाइप भी इसी दिशा में होना शुभ है।
भवन में ईशान कोण कटा हुआ नहीं होना चाहिए। कोण कटा होने से भवन में निवास करने वाले व्यक्ति रक्त विकार से ग्रस्त हो सकते हैं। यौन रोगों में वृद्धि होती है और प्रजनन क्षमता दुष्प्रभावित होती है। ईशान कोण में यदि उत्तर का स्थान अधिक ऊंचा है तो उस स्थान पर रहने वाली स्त्रियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ईशान के पूर्व का स्थान ऊंचा होने पर पुरुष दुष्प्रभावित होते हैं। परिवार का कोई सदस्य बीमार हो तो उसे ईशान कोण में मुंह करके दवा का सेवन कराने से जल्दी स्वास्थ्य लाभ मिलता है।
भवन की दक्षिण-पूर्व दिशा का संबंध अग्नि तत्व से होता है, जिसे अग्नि कोण माना गया है। इस दिशा में रसोई का निर्माण करने से निवास करने वाले रोगों का स्वास्थ्य ठीक रहता है। इस दिशा में जल भंडारण या जल स्रोत की व्यवस्था हो तो उदर रोग, आंत संबंधी रोग एवं पित्त विकार आदि बीमारियों की संभावना रहती है।
दक्षिण-पूर्वी दिशा में दक्षिण का स्थान अधिक बढ़ा हो तो परिवार की स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक कष्ट होते हैं। पूर्व का स्थान बढ़ा हुआ होने से पुरुषों को शारीरिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
दक्षिण-पश्चिम भाग का संबंध पृथ्वी तत्व से होता है, अत: इसे ज्यादा खुला नहीं रखना चाहिए। इस स्थान को हल्का व खुला रखने से अनेक प्रकार की शारीरिक बीमारियों एवं मानसिक व्याधियों का शिकार होना पड़ता है। निवास करने वाले सदस्यों में निराशा, तनाव एवं क्रोध उत्पन्न होता है। अत: इस स्थान को सबसे भारी रखना श्रेष्ठकर है। यह भाग भवन के अन्य भागों से कटा हुआ नहीं होना चाहिए वरना मधुमेह की बीमारी, चिंता, अतिचेष्टा तथा अति जागरूकता जैसी व्याधियां उत्पन्न होती हैं।
दक्षिण-पश्चिम में दक्षिण का भाग अधिक बढ़ा हुआ अथवा नीचा हो तो उसमें निवास करने वाली स्त्रियों के मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। पश्चिमी भाग अगर अधिक बढ़ा हुआ और अधिक नीचा हो तो पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अत: दक्षिण-पश्चिम के कोण को न तो बढ़ाएं और न छोटा करें। इस स्थान को भवन में सर्वाधिक भारी रखना शुभ है।