Edited By ,Updated: 13 Dec, 2016 12:26 PM
वृत्रासुर त्वष्टा ऋषि का यज्ञ-पुत्र था। इन्द्र द्वारा वृत्रासुर का वध करने पर इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इससे बचने के लिए इन्द्र अपना लोक छोड़कर भागे और एक अज्ञात सरोवर में जा छिपे।
वृत्रासुर त्वष्टा ऋषि का यज्ञ-पुत्र था। इन्द्र द्वारा वृत्रासुर का वध करने पर इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इससे बचने के लिए इन्द्र अपना लोक छोड़कर भागे और एक अज्ञात सरोवर में जा छिपे।
ब्रह्महत्या के भय से वे बहुत वर्षों तक उस सरोवर से नहीं निकले। इन्द्र के न रहने पर देवलोक में इन्द्रासन सूना हो गया। राजा के न रहने से बड़ी अव्यवस्था हो गई। राज-काज कौन देखे, किसे राजा बनाया जाए? इस प्रश्न पर सब विचार करने लगे।
देवगुरु बृहस्पति ने कहा, ‘‘इन्द्रलोक का राज-काज चलाने के लिए किसी समर्थ और अनुभवी राजा को ही इस पद पर बैठाया जाए।’’
बहुत सोच-विचार के बाद गुरु बृहस्पति ने कहा, ‘‘इस समय भूलोक में नहुष का राज है। वह बहुत ही समर्थ, योग्य और चक्रवर्ती सम्राट हैं। इन्द्र के वापस आने तक उन्हें इंद्र की पदवी देकर इन्द्रासन पर बैठा दिया जाए।’’
सबकी सहमति होने पर नहुष को इन्द्र की पदवी देकर इन्द्रासन सौंप दिया गया तथा नहुष ने बड़ी कुशलता से राजकाज संभाल लिया। इन्द्रलोक का वैभव देखकर उन्होंने सोचा, ‘‘ऐसा सुख और वैभव भूलोक के राजाओं के पास कहां। सचमुच इन्द्र होना कितने वैभव और संपदा का स्वामी होना होता है। इसके आगे तो मेरे भूलोक का राज एक दरिद्र का राज लगता है।’’
इन्द्रलोक की चकाचौंध में नहुष अपने कर्तव्य पर उतना ध्यान न देकर सुख-वैभव भोगने के बारे में ज्यादा सोचने लगे। उन्होंने यह न सोचा कि वह अस्थायी रूप से इंद्र-पद पर बैठाए गए हैं, बल्कि इसके विपरीत वह अब अपने को सचमुच इन्द्र समझने लगे। जब इन्द्र बन गए तो इन्द्राणी भी उनकी होनी चाहिए, ऐसा विचार उसके मन में पैदा हुआ।
एक दिन इंद्र की पत्नी शची के सामने उन्होंने प्रस्ताव रखा, ‘‘मैं इंद्र हो गया हूं, अत: तुम मेरी पत्नी के रूप में मेरे साथ रहो।’’
शची ने समझाया, ‘‘राजेंद्र नहुष! मैं पतिव्रता स्त्री हूं। इन्द्र ही मेरे पति हैं। वह ब्रह्महत्या के भय से भले ही अभी छिपे हैं, पर मैं पत्नी उन्हीं की हूं, अत: मुझे अपनी इन्द्राणी बनाने का विचार त्याग कर जिस कार्य के लिए आप नियुक्त किए गए हैं, वही राज-काज करें।’’
यह सुनकर नहुष को क्रोध आ गया और उसने कहा, ‘‘अब मैं ही इन्द्र हूं और आजीवन यहीं इंद्र रूप में रहूंगा। अगर तुम मेरी बात नहीं मानोगी तो बलपूर्वक तुम्हें अपनी रानी बना लूंगा। तुम्हारे बिना इंद्रलोक का सुख अधूरा है।’’
शची ने मन-ही-मन विचार किया, ‘‘नहुष प्रभुता पाकर मदमत्त हो गए हैं। इनका विवेक नष्ट हो गया है। कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान उन्हें नहीं रह गया है। यह मनुष्य की कमजोरी है, इसलिए अपना शील बचाने के लिए मुझे कुछ उपाय करना होगा।’’
काफी विचार कर शची ने कहा, ‘‘हे नरेंद्र! अब आप समर्थ हैं। मुझमें आपके प्रस्ताव का विरोध करने का सामर्थ्य नहीं। अब आप ऐसा चाहते हैं तो एक काम करिए। आप सप्तऋषियों को कहार बनाकर पालकी में बैठकर मुझे ब्याहने के लिए मेरे घर आइए। तब मैं इंद्राणी के रूप में आपके साथ रहूंगी।’’
भोगी मनुष्य रोगी होता है। उचित-अनुचित का विचार नहीं कर पाता। नहुष ने तत्काल शची का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन उन्होंने आज्ञा दी, ‘‘सप्तऋषि मुझे पालकी में बैठाकर स्वयं कहार बनकर पालकी ढोएं और मुझे इन्द्राणी शची के घर ले चलें।’’
राजाज्ञा थी। ऋषियों ने यह स्वीकार कर लिया। एक सुंदर सजी हुई पालकी में नहुष बैठे और सप्तऋषि कहार बनकर बारी-बारी से उसे ढोने लगे। ऋषि तो साधु महात्मा थे। पालकी ढोने और तेज चलने का उन्हें अभ्यास नहीं था। उधर नहुष उतावला हो रहा था कि जल्दी से जल्दी इन्द्राणी के पास पहुंचे। ऋषियों के धीरे-धीरे चलने तथा देर होते देख वह क्रोधित होकर बोला, ‘‘आलसी ऋषियो! देर हो रही है, धीरे-धीरे मत चलो। सर्प...सर्प।’’
‘सर्प’ का अर्थ होता है तेज चलो, तेज चलो। ऋषि थके मांदे तो थे ही। नहुष की इस उद्दंडता से अगस्त्य ऋषि को क्रोध आ गया। उन्होंने अपने साथियों को कहकर पालकी कंधे से उतारी और शाप देते हुए कहा, ‘‘नहुष! प्रभुता पाकर तुम अपना विवेक खो बैठे हो। तुम्हें नीति-धर्म का ज्ञान नहीं रह गया है। एक तो तुम ऋषि-ब्राह्मणों से पालकी ढुलवा रहे हो, ऊपर से ‘सर्प...सर्प’ कहकर तीव्र चलने को कहते हो, अब तुम इंद्र पद के योग्य नहीं रहे। आओ स्वयं ‘सर्प’ हो जाओ।’’
ऋषियों के जल्दी चलने के लिए ‘सर्प-सर्प’ कहने का फल नहुष को मिला कि इंद्र पद छूटा और अब सर्प योनि में जीवन बिताने का पाप भोगना पड़ा। छिपकर तप करते रहने से अब तक इंद्र का ब्रह्महत्या के पाप से पीछा छूट चुका था। वह देवलोक आए और इंद्र पद पर पुन: आसीन हुए। देवों और ऋषियों ने चैन की सांस ली।