Edited By Prachi Sharma,Updated: 20 Aug, 2024 11:29 AM
एक बार पं. मदन मोहन मालवीय के पास एक धनी सेठ अपनी कन्या के विवाह का निमंत्रण-पत्र देने आया। संयोग से जिस युवक के साथ उनकी कन्या का विवाह होने वाला था, वह मालवीय का शिष्य
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Inspirational Context: एक बार पं. मदन मोहन मालवीय के पास एक धनी सेठ अपनी कन्या के विवाह का निमंत्रण-पत्र देने आया। संयोग से जिस युवक के साथ उनकी कन्या का विवाह होने वाला था, वह मालवीय का शिष्य था।
मालवीय ने सेठ से कहा, “प्रभु की आप पर कृपा है। सुना है कि आप इस विवाह पर लाखों रुपए खर्च करने वाले हैं। इससे धन प्रदर्शन आदि में व्यर्थ ही चला जाएगा।
वह राशि आप हमें ही दहेज में दे दें ताकि इससे हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्माण का शेष कार्य पूरा हो सके। लड़के का गुरु होने के नाते मैं यह दक्षिणा लोकमंगल के कार्य के लिए आपसे मांग रहा हूं।”
मालवीय के इस कथन का उस सेठ पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने विवाह में ढेर सारा खर्च करने का अपना विचार बदल दिया।
उन्होंने अत्यन्त सादगी से न केवल आदर्श विवाह किया अपितु विश्वविद्यालय में अनेक भवन भी बनवा दिए। लोगों ने भी कहा, “दहेज हो तो ऐसा।”
प्रसंग का सार यह है कि निंदा का केंद्र बनी हुई दहेज जैसी कुप्रथा को भी मालवीय की जनहित की पवित्र भावना ने एक नया ही रूप प्रदान किया।
शादियों में लाखों रुपए खर्च करने वाले व लाखों रुपए वर या वधू पक्ष को दहेज में देने वाले लोग यदि इन कार्यों को सादगी से सम्पन्न कर उसी धन को समाजसेवा के कार्य में लगाएं तो समाज का निश्चित ही भला होगा।