Edited By Prachi Sharma,Updated: 15 Dec, 2024 06:00 AM
मनुष्य की अच्छाई-बुराई का निवास उसके मस्तिष्क में है। अपने मस्तिष्क से मनुष्य जैसा सोचता है, वह वैसा ही कार्य करता है और उसी के आधार पर उसके चरित्र का निर्माण होता है।
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Inspirational Context: मनुष्य की अच्छाई-बुराई का निवास उसके मस्तिष्क में है। अपने मस्तिष्क से मनुष्य जैसा सोचता है, वह वैसा ही कार्य करता है और उसी के आधार पर उसके चरित्र का निर्माण होता है। मननशील और विवेकशील प्राणी को मनुष्य कहते हैं। विवेकशून्य मनुष्य पशु के समान होता है जिसमें भले-बुरे की पहचान नहीं होती।
‘निरूक्त’ में आचार्य यास्क मनुष्य की परिभाषा लिखते हैं कि ‘मत्वा कर्माणि सीव्यति’ अर्थात जो सोच-विचार कर कार्य करता है, वही मनुष्य कहलाने का अधिकारी है। मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए सदैव विवेक से काम लेकर बुराई से बचना और भलाई में प्रवृत्त रहना चाहिए। मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए आवश्यक है कि उसका शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास साथ-साथ हो। सब मनुष्यों का यही ध्येय होना चाहिए। उसमें मनुष्य की महत्ता निहित होती है। इसी महत्ता से मनुष्य धर्मात्मा, बुद्धिमान और निर्भीक बनता है। मनुष्य की पहचान उसकी शक्ल-सूरत, धन-वैभव, वस्त्राभूषण से नहीं, अपितु उसके चरित्र से, उसकी बातों से और उसके कार्यों से हुआ करती है परंतु आज मनुष्य का आचरण पशु की भांति दिखाई पड़ता है। आज का मनुष्य धन संपत्ति और भोग का दास बना हुआ है।
आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य के जीवन का लक्ष्य श्रेष्ठ बने जिससे मनुष्य अपनी सृजना को गौरवान्वित कर सके। सबसे बड़ी गड़बड़ मानव की भावना में स्वार्थ वृत्ति के आ जाने से तथा मनुष्य जीवन की उपयोगिता और महत्व को न समझने के कारण हुई। पतन का अनुपात विलासिता की आसक्ति के अनुपात में होता है। मनुष्य के स्वार्थी तथा विलासी होने से उसका पतन होता है। अपने स्वार्थ की पूॢत के लिए वह बुरे से बुरे कार्य करने के लिए प्रवृत्त हो जाता है। परमात्मा का डर उसके हृदय से निकल गया, मनुष्य परमात्मा के नियमों की उपेक्षा करके उसे चुनौती देने लग गया। आज का मानव अपने आपको बड़ा ही बुद्धिमान व योग्य मानता है और समझता है कि वह जो संसार में कर रहा है, सब सही व सटीक कर रहा है और समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रहा है। ऐसे में मुझे स्वामी दयानंद जी द्वारा स्थापित आर्य समाज के नियम सहज भाव से प्रेरित करते हैं कि यह सही है कि हमारी सामाजिक उन्नति होनी ही चाहिए पर इसका क्रम क्या होना चाहिए यह बात अवश्य मनन के योग्य है।
स्वामी दयानंद यह संदेश दे रहे हैं कि वही व्यक्ति समाज की सही तरह से उन्नति कर सकता है जिसकी पहले अपनी शारीरिक व मानसिक उन्नति हो चुकी हो। अपने जीवन को बदले बिना समाज की उन्नति हो ही नहीं सकती इसलिए किसी विद्वान ने सच ही कहा है कि ‘हम बदलेंगे जग बदलेगा, हम सुधरेंगे जग सुधरेगा’।
इस संसार से विदा होते समय मनुष्य के साथ केवल उसके द्वारा किए पुण्य कर्म ही साथ देते हैं। आने वाली पीढ़ियों के उपकार के लिए मनुष्य जो श्रेष्ठतम संपदा छोड़ता है वह उसकी सच्चरित्रता और पुण्य कर्म होते हैं। मनुष्य का उत्तम जीवन चरित्र प्रकाश स्तम्भ के समान है जो मार्ग से भटके हुए लोगों को सन्मार्ग पथ दिखा सकता है।
संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनकी महानता का प्रमाण उनका उच्च तथा आदर्श चरित्र था। आदर्श जीवन चरित्र वाला मनुष्य अपने जीवन के चिन्ह उसी प्रकार छोड़ जाता है, जिस प्रकार रेत पर चलने से पीछे मनुष्य के पदचिन्ह रह जाते हैं इसलिए अपने जीवन को सफल बनाने के लिए हमें उसको उज्ज्वल तथा आदर्श चरित्र से युक्त बनाना होगा।