Edited By Prachi Sharma,Updated: 04 Sep, 2024 07:00 AM
ईश्वर चंद्र विद्यासागर अपने मित्र गिरीश चन्द्र विद्यारत्न के साथ बंगाल के कालना गांव जा रहे थे। दोनों मित्र बातें करते हुए आगे बढ़ रहे थे, तभी मार्ग में उनकी दृष्टि लेटे हुए एक मजदूर पर
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Inspirational Context: ईश्वर चंद्र विद्यासागर अपने मित्र गिरीश चन्द्र विद्यारत्न के साथ बंगाल के कालना गांव जा रहे थे। दोनों मित्र बातें करते हुए आगे बढ़ रहे थे, तभी मार्ग में उनकी दृष्टि लेटे हुए एक मजदूर पर पड़ी। उसे हैजा हो गया था। वह बड़ी तकलीफ में था।
उसकी भारी गठरी एक ओर लुढ़की पड़ी थी। उसके मैले कपड़ों से बदबू आ रही थी। लोग उसकी ओर से मुंह फेरकर वहां से तेजी से निकले जा रहे थे। कोई भी उसकी सहायता के लिए आगे नहीं आ रहा था। बेचारा मजदूर उठने में भी असमर्थ था।
यह दृश्य देखकर दयालु ईश्वरचंद्र विद्यासागर बोले, “आज हमारा सौभाग्य है।”
मित्र गिरीशचंद्र विद्यारत्न ने पूछा, “कैसा सौभाग्य ?”
विद्यासागर ने कहा, “किसी दीन-दुखी की सेवा का अवसर प्राप्त हो, इससे बढ़कर सौभाग्य क्या होगा। यह बेचारा यहां मार्ग में पड़ा है। हमें इसकी सहायता करनी चाहिए।”
हैजे जैसे रोग में स्वजन भी दूर भागते हैं। ऐसे में एक दरिद्र, मैले-कुचैले दीन मजदूर का उस समय स्वजन बनना सामान्य बात नहीं थी। पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर तो थे ही दया के सागर।
उनके मित्र विद्यारत्न भी उनसे पीछे कैसे रहते। विद्यासागर ने उस मजदूर को पीठ पर लादा और उसकी भारी गठरी सिर पर उठाई। दोनों भारी वजन लादे कालना पहुंचे।
उन्होंने मजदूर के लिए रहने की व्यवस्था की। एक वैद्य जी को चिकित्सा के लिए बुलाया। दोनों ने पूरी तन्मयता से उस बीमार मजदूर की सेवा की। जब मजदूर दो-तीन दिन में उठने-बैठने लायक हो गया, तब कुछ पैसे देकर उसे वहां से विदा किया।
मजदूर ने तो दोनों का धन्यवाद किया ही लेकिन जिसने भी यह दृश्य देखा उसने उन दोनों की इंसानियत और सेवा भावना की भरपूर प्रशंसा की।