Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Dec, 2022 08:23 AM
भारत में ऐतिहासिक महत्व के मंदिरों की कमी नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ महानगर के उस स्थान पर भी एक ऐसा मंदिर है जिसे अंग्रेजों के समय में भारतीय सेना की वजह से काली पल्टन कहा जाता था।
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Augharnath Mandir in Meerut: भारत में ऐतिहासिक महत्व के मंदिरों की कमी नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ महानगर के उस स्थान पर भी एक ऐसा मंदिर है जिसे अंग्रेजों के समय में भारतीय सेना की वजह से काली पल्टन कहा जाता था। जब बात मेरठ शहर की हो तो यहां मौजूद अनेक प्राचीन धरोहरें दिलो-दिमाग में छा जाती हैं। शहर की प्राचीन विरासत बेहद समृद्ध है, कोई इसे रावण के ससुराल के नाम से जानता है तो कोई असुरों के राजा राक्षस मयराष्ट्र से। इस कड़ी में मेरठ के सबसे गौरवमयी इतिहास का गवाह प्राचीन एवं सुप्रसिद्ध बाबा औघड़नाथ मंदिर भी शामिल है। मंदिर में स्थापित लघुकाय शिवलिंग स्वयंभू, फलप्रदाता तथा मनोकामनाएं पूर्ण करने वाले औघड़दानी शिवस्वरूप हैं।
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Augharnath Temple: इसी कारण इसका नाम औघड़नाथ शिव मंदिर पड़ गया। मेरठ के छावनी क्षेत्र में स्थित यह मंदिर सामान्य तौर पर काली पल्टन के नाम से ही विख्यात है। हर साल कांवड़ यात्रा के दौरान मंदिर की छटा देखते ही बनती है, शिवरात्रि पर कांवड़ियों के लिए भी यह मंदिर विशेष अहमियत रखता है।
पेशवा करते थे पूजा-उपासना
इस मंदिर की स्थापना का कोई निश्चित समय उपलब्ध नहीं है। जनश्रुति के अनुसार यह सन् 1857 से पूर्व ख्याति प्राप्त श्रद्धास्पद वंदनीय स्थल के रूप में विद्यमान था। वीर मराठों के समय में अनेक प्रमुख पेशवा विजय यात्रा से पूर्व इस मंदिर में उपस्थित होकर बड़ी श्रद्धा से प्रलंयकर भगवान शंकर की उपासना एवं पूजा किया करते थे।
मंदिर श्वेत संगमरमर से निर्मित है, जिस पर यथा स्थान उत्कृष्ट नक्काशी भी की गई है। बीच में मुख्य मंदिर बाबा भोलेनाथ एवं मां पार्वती को समर्पित है जिसका शिखर अत्यंत ऊंचा है। उस शिखर के ऊपर कलश स्थापित है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान एवं भगवती की सौम्य आदमकद मूर्तियां स्थापित हैं व बीच में नीचे शिव परिवार सिद्ध शिवलिंग के साथ विद्यमान हैं। इसके उत्तरी द्वार के बाहर ही इनके वाहन नंदी बैल की एक विशाल मूर्ति स्थापित है। गर्भगृह के भीतर मंडप एवं छत पर भी कांच का अत्यंत सुंदर काम किया हुआ है।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के साथ है मंदिर का विशेष संबंध
सन् 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की भूमिका में इस देव स्थान का भी प्रमुख स्थान रहा है। सुरक्षा एवं गोपनीयता के लिए उपयुक्त शांत वातावरण के कारण अंग्रेजों ने यहां सेना का प्रशिक्षिण केंद्र स्थापित किया था।
हिन्दुस्तानी पल्टनों के निकट होने के कारण इस मंदिर में अनेक स्वतंत्रता सेनानी आते, ठहरते तथा हिन्दुस्तानी पल्टनों के अधिकारियों से गुप्त मंत्रणाएं किया करते थे।
इनमें हाथी वाले बाबा अपना विशिष्ट स्थान रखते थे। कहते हैं कि वह धूधपंत नाना साहब थे। 1856 में बंदूकों के नए कारतूसों का आगमन भी स्वतंत्रता के प्रथम आंदोलन का प्रधान कारण बना।
इन कारतूसों का प्रयोग करने से पहले मुख से खोला जाता था जिसमें गाय की चर्बी लगी रहती थी जिसकी वजह से मंदिर के तत्कालीन पुजारी ने सेना के जवानों को पानी पिलाने से मना कर दिया। अत: निर्धारित 31 मई से पूर्व ही उत्तेजित सेना के जवानों ने 10 मई, 1857 को अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजा दिया।
मंदिर के पास है प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों का स्मारक
मंदिर में बने एक ऐतिहासिक कुएं पर बंगलादेश के विजेता तत्कालीन मेजर जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के हाथों स्थापित शहीद स्मारक क्रांति के गौरवमयी अतीत का ज्वलंत प्रतीक है। यहां आज भी प्रतिवर्ष 10 मई को भारत वर्ष के स्वतंत्रता सेनानी इकट्ठे होकर शहीदों को अपनी पुष्पांजलि अर्पित कर सम्मेलन करते हैं।
पुराने लोग जानते हैं कि 1944 तक प्रशिक्षण केंद्र में वृक्षों के जंगल में छोटा साफ शिव मंदिर व इसके पास में एक कुआं (प्याऊ के रूप) विद्यमान था।
राधा-कृष्ण को समर्पित मंदिर
इस मंदिर के उत्तर की ओर दूसरा मंदिर राधा-कृष्ण को समर्पित है जिसका शिखर भी मुख्य मंदिर के समान ही ऊंचा है।
मंदिर की परिक्रमा में कई सुंदर चित्र बने हुए हैं। इसके गर्भगृह में राधा-कृष्ण की बहुत ही आकर्षक एवं भव्य मूर्तियां एक सुंदर रजत मंडप में स्थापित हैं।
गर्भगृह के बाहर भी एक बड़ा सा मंडप निर्मित है।