Edited By Jyoti,Updated: 26 Sep, 2021 06:48 PM
महाभारत ग्रंथ को महाकाव्य कहा जाता है। इसमें द्वापर युग में होने वाले महाभारत युद्ध के बारे में तथा इससे संबंध रखने वाले हर पात्र के बारे में बताया है। यूं तो इसका हर पात्र अपने आप में अहम है
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महाभारत ग्रंथ को महाकाव्य कहा जाता है। इसमें द्वापर युग में होने वाले महाभारत युद्ध के बारे में तथा इससे संबंध रखने वाले हर पात्र के बारे में बताया है। यूं तो इसका हर पात्र अपने आप में अहम है, परंतु कुछ पात्र ऐसे हैं, जिन्हें आज भी याद किया जाता है। जिस पात्र की हम बात करने जा रहे हैं वो है दानवीर कर्ण। धार्मिक कथाओं के अनुसार कर्ण दुर्योध्न का परम मित्र था, जिस कारण उसने हमेशा विकट स्थिति में उसका साथ दिया और उसके प्राणों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहा। इसने अपने जीवन में कई चुनौतियों का सामना किया था। आज हम आपको बताने जा रहे हैं कर्ण द्वारा श्री कृष्ण से पूछे गए उस सवाल के बारे में जिसे सुनने के बाद कर्ण को ज्ञात हुआ कि जिंदगी न्याय करे न करें किसी भी परिस्थिति में अधर्म के रास्ते पर न चलें।
कर्ण ने कृष्ण से पूछा - मेरा जन्म होते ही मेरी मां ने मुझे त्याग दिया, मैं जानता चाहता हूं क्या अवैध संतान होना मेरा दोष था। द्रोणाचार्य ने मुझे शिक्षा नहीं दी क्योंकि मैं क्षत्रिय पुत्र नहीं था। परशुराम जी ने मुझे सिखाया तो परंतु केवल संयोगवश एक गाय को मेरा बाण लगा और उसके स्वामी ने मुझे श्राप दिया कि जिस वक्त मुझे उस विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, मुझे उसका विस्मरण होगा। क्योंकि उनके अनुसार भी मैं क्षत्रिय नहीं था।
द्रौपदी के स्वयंवर मेरा अपमान किया गया। माता कुंती ने मुझे आखिर में मेरा जन्म रहस्य बताया भी तो अपने अन्य बेटों को बचाने के लिए। जो भी मुझे प्राप्त हुआ है, दुर्योधन से ही हुआ है। तो, अगर मैं उसकी तरफ से लड़ूं तो मैं गलत कहां हूं?
तब श्री कृष्ण ने उत्तर दिया कर्ण, मेरा जन्म कारागार में हुआ। जन्म से पहले ही मृत्यु मेरी प्रतीक्षा में घात लगाए थी। जिस रात को मेरा जन्म हुआ, उसी रात ही मुझे माता पिता से दूर कर दिया गया।
तुम्हारा बचपन खड्ग, रथ, घोड़े, धनुष्य और बाण के बीच उनकी ध्वनि सुनते बीता। मुझे ग्वाले की गौशाला मिली, गोबर मिला और खड़ा होकर चल भी पाया उसके पहले ही कई प्राणघातक हमले झेलने पड़े।
कोई सेना नहीं, कोई शिक्षा नहीं। लोगों से ताने ही मिले कि उनकी समस्याओं का कारण मैं हूं। तुम्हारे गुरु जब तुम्हारे शौर्य की तारीफ कर रहे थे, मुझे उस उम्र में कोई शिक्षा भी नहीं मिली थी। जब मैं 16 वर्ष का हुआ तब कहीं जाकर ऋषि सांदीपन के गुरुकुल पहुंचा।
तुमने अपनी पसंद की कन्या से विवाह किया, परंतु मैंने जिस कन्या से प्रेम किया वो मुझे नही मिली और विवाह उनसे करने पड़े जिन्हें मेरी चाहत थी या जिनको मैंने राक्षसों से बचाया था।
मेरे पूरे समाज को यमुना के किनारे से हटाकर एक दूर समुद्र के किनारे बसाना पड़ा, उन्हें जरासंध से बचाने के लिए। रण से पलायन के कारण मुझे भीरु भी कहा गया।
अगर दुर्योधन युद्ध जीतता है तो तुम्हें बहुत श्रेय मिलेगा। धर्मराज अगर जीतता है तो मुझे क्या मिलेगा?
मुझे केवल युद्ध और युद्ध से निर्माण हुई समस्याओं के लिए दोष दिया जाएगा। हे कर्ण हमेशा इस बात का स्मरण रखना कि हर किसी को जिंदगी चुनौतियां देती हैं, जिंदगी किसी के भी साथ न्याय नहीं करती। दुर्योधन ने अन्याय का सामना किया है तो युधिष्ठिर ने भी अन्याय भुगता है।
लेकिन सत्य धर्म क्या है यह तुम जानते हो। कितना ही अपमान हो, जो हमारा अधिकार है वो हमें न मिल पाए तो कोई बात नहीं। महत्व इस बात का है कि तुम उस समय उस संकट का सामना कैसे करते हो।
इसलिए रोना धोना बंद करो कर्ण और ये जान लो कि जिंदगी न्याय नहीं करती इसका मतलब यह नहीं होता कि तुम्हें अधर्म के पथ पर चलने की अनुमति है।