Edited By Niyati Bhandari,Updated: 28 Nov, 2024 11:37 AM
प्राचीन बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि वाराणसी बुद्ध काल (कम-से-कम पांचवीं ईसा पूर्व शताब्दी) में चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत एवं कौशाम्बी जैसे महान एवं प्रसिद्ध नगरों में गिनी जाती थी। विश्व में ऐसा कोई नगर नहीं है, जो बनारस से बढ़कर...
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बौद्ध-जैन ग्रंथों में उल्लेख
प्राचीन बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि वाराणसी बुद्ध काल (कम-से-कम पांचवीं ईसा पूर्व शताब्दी) में चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत एवं कौशाम्बी जैसे महान एवं प्रसिद्ध नगरों में गिनी जाती थी। विश्व में ऐसा कोई नगर नहीं है, जो बनारस से बढ़कर प्राचीनता, निरंतरता और मोहक आदर का पात्र हो। 3 हजार वर्ष से यह पवित्रता ग्रहण करता आ रहा है। इस नगर के कई नाम रहे हैं जैसे- वाराणसी, अविमुक्त एवं काशी। अपनी महान जटिलताओं एवं विरोधों के कारण यह नगर सभी युगों में भारतीय जीवन का एक सूक्ष्म स्वरूप रहता आया है। वाराणसी या काशी के विषय में महाकाव्यों एवं पुराणों में हजारों श्लोक कहे गए हैं। उस समय यह नगर आर्यों की लीलाओं का केंद्र बन चुका था। प्राचीन जैन ग्रंथों में भी वाराणसी एवं काशी का उल्लेख हुआ है। अश्वघोष ने अपने ‘बुद्धचरित’ में वाराणसी एवं काशी को एक-सा कहा है। वहां लिखा है कि बुद्ध ने वाराणसी में प्रवेश करके अपने प्रकाश से नगर को प्रकाशित करते हुए काशी के निवासियों के मन में कौतुक भर दिया।
पौराणिक एवं शास्त्रीय मान्यता
हरिवंश पुराण के अनुसार काशी को बसाने वाले भरतवंशी राजा ‘काश’ थे। स्कंदपुराण के मत से भगवान शंकर ने काशी को सबसे पहले आनंद वन कहा और फिर अविमुक्त कहा। काशी शब्द ‘काश’ (चमकना) से बना है। काशी इसलिए प्रसिद्ध हुई कि यह निर्वाण के मार्ग में प्रकाश फैंकती है। वाराणसी शब्द की व्युत्पत्ति कुछ पुराणों ने इस प्रकार की है कि यह ‘वरणा’ एवं ‘असि’ नामक दो धाराओं के बीच में है, जो क्रम से इसकी उत्तरी एवं दक्षिणी सीमाएं बनाती हैं।
पुराणों में बहुधा वाराणसी एवं अविमुक्त नाम आते हैं। बहुत-से पुराणों के मतानुसार इस पवित्र स्थल का नाम अविमुक्त इसलिए पड़ा कि शिव ने इसे कभी नहीं छोड़ा। स्कंदपुराण अनुसार यह पवित्र स्थल आनंदकानन है क्योंकि यद्यपि शिव पर्वत चले गए पर उन्होंने इसे पूर्णतया छोड़ा नहीं बल्कि अपने प्रतीक के रूप में विश्वनाथ शिवलिंग यहां छोड़ गए।
मत्स्यपुराण (185/68-69) के अनुसार काशी में विश्वनाथ के अलावा 5 प्रमुख तीर्थ हैं : दशाश्वमेध, लोलार्क (काशी में कई सूर्य-तीर्थ हैं, जिनमें एक लोलार्क भी है), केशव, बिन्दुमाधव एवं मणिकर्णिका।
आधुनिक काल के प्रमुख पंचतीर्थ हैं : असि एवं गंगा का संगम, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका, पंचगंगा घाट तथा वरणा एवं गंगा का संगम। मणिकर्णिका को मुक्तिक्षेत्र भी कहा जाता है। यह बनारस के धार्मिक जीवन का केंद्र है और वहां के सभी तीर्थों में इसे सर्वोच्च माना जाता है। एक बार शिव जी का कर्णाभूषण यहां गिर पड़ा और इसी से इसका नाम मणिकर्णिका पड़ा।
ऐसे ही पंचगंगा घाट का नाम इसलिए विख्यात हुआ कि यहां 5 नदियों के मिलने की कथा है। यथा - किरणा, धूतपापा, गंगा, यमुना एवं सरस्वती, जिनमें चार गुप्त हैं।
इस पंचगंगा घाट पर स्वामी रामानंदाचार्य का श्रीमठ है। कुछ कारणों से काशी ‘श्मशान’ या ‘महाश्मशान’ भी कही जाती है। गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर सदा शव जलाए जाते हैं। श्मशान को अपवित्र माना जाता है किंतु हजारों वर्षों से श्मशानघाट होने पर भी यह गंगा का परम पवित्र तट माना जाता है।
स्कंदपुराण में आया है कि ‘श्म’ का अर्थ है ‘शव’ और ‘शान’ का है सोना (शयन) या पृथ्वी पर पड़ जाना। जब प्रलय आती है तो महान तत्व शवों के समान यहां पड़ जाते हैं, अत: यह स्थान ‘श्मशान’ कहलाता है।
जैसे सूर्यदेव एक जगह स्थित होने पर भी सब को दिखाई देते हैं, वैसे ही संपूर्ण काशी में सर्वत्र बाबा विश्वनाथ का ही दर्शन होता है।
पुराणों में ऐसा आया है कि काशी के पद-पद पर तीर्थ हैं, एक तिल भी स्थल ऐसा नहीं है, जहां शिव नहीं हों। काशी की महिमा विभिन्न धर्म ग्रंथों में गाई गई है।
काशी शब्द का अर्थ है, प्रकाश देने वाली नगरी। जिस स्थान से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है, उसे काशी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि काशी-क्षेत्र में देहांत होने पर जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
काशी-क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के लिए पुराने समय में पंचक्रोशी (पंचकोसी) मार्ग का निर्माण किया गया था। जिस वर्ष अधिमास (अधिक मास) लगता है, उस वर्ष इस महीने में पंचक्रोशी यात्रा की जाती है। पंचक्रोशी यात्रा करके भक्तगण भगवान शिव और उनकी नगरी काशी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं। अधिकमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। लोक-भाषा में इसे मलमास कहा जाता है।
वैदिक मान्यता
कुछ विद्वानों के मत में काशी वैदिक काल से भी पूर्व की नगरी है। शिव की उपासना का प्राचीनतम केंद्र होने के कारण ही इस धारणा का जन्म हुआ जान पड़ता है क्योंकि सामान्य रूप से शिवोपासना को पूर्व वैदिककालीन माना जाता है। वैसे, काशी जनपद के निवासियों का सर्वप्रथम उल्लेख हमें अथर्ववेद की पैप्पलादसंहिता में (5,22,14) मिलता है। शुक्लयजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में (135, 4, 19) काशिराज धृतराष्ट्र का उल्लेख है, जिसे शतानीक सत्राजित् ने पराजित किया था।
बृहदारण्यकोपनिषद् में (2,1,1,3,8,2) काशिराज अजात शत्रु का भी उल्लेख है। कौषीतकी उपनिषद् (4,1) और बौधायन श्रौतसूत्र में काशी और विदेह तथा गोपथ ब्राह्मण में काशी और कोसल जनपदों का साथ-साथ वर्णन है।
इसी प्रकार काशी, कोसल और विदेह के सामान्य पुरोहित जलजातूकण्र्य का नाम शांखायन श्रौतसूत्र में प्राप्य है। काशी जनपद की प्राचीनता तथा इसकी स्थिति इन उपर्युक्त उल्लेखों से स्पष्ट हो जाती है।
विश्वनाथ जी की अति-श्रेष्ठ नगरी काशी पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होती है। यहां शरीर छोड़ने पर प्राणियों को मुक्ति अवश्य मिलती है। काशी बाबा विश्वनाथ की नगरी है। काशी के अधिपति भगवान विश्वनाथ कहते हैं - ‘इदं मम प्रियंक्षेत्रं पंचकोशीपरीमितम्’ यानी पांच कोस तक विस्तृत यह क्षेत्र (काशी) मुझे अत्यंत प्रिय है।