Edited By Niyati Bhandari,Updated: 02 Feb, 2022 11:57 AM
देश-विदेश में असंख्य लोगों की आस्था का केंद्र बन चुके सतगुरु बावा लाल दयाल जी का जन्म सन् 1355 ई. के माघ माह के शुक्ल पक्ष की
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Baba lal dayal ji history in hindi: देश-विदेश में असंख्य लोगों की आस्था का केंद्र बन चुके सतगुरु बावा लाल दयाल जी का जन्म सन् 1355 ई. के माघ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को लाहौर स्थित कस्बे कसूर में पटवारी भोलामल जी के घर में हुआ।
बालक लाल दयाल जी को आध्यात्मिकता के गुण अपनी माता कृष्णा देवी जी से प्राप्त हुए। बचपन में ही इनके मुख पर अलौकिक तेज था, जिसे देख माता-पिता ने विद्वान ज्योतिषी को बुलवाया, जिसने भविष्यवाणी की कि यह कोई सामान्य बालक नहीं बल्कि अध्यात्म के मार्ग पर चल कर स्वयं तो मोक्ष प्राप्त करेगा ही, आने वाली पीढिय़ों का भी मार्गदर्शन कर उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखाएगा।
ज्योतिषी की भविष्यवाणी सत्य साबित हुई। यही बालक आगे चल कर परम सिद्ध, परम तपस्वी, ज्ञानी, योगीराज तथा परमहंस जैसी उपाधियों से अलंकृत हुआ। इन्होंने अपनी योग शक्ति के बल पर 300 वर्ष का सुदीर्घ जीवन प्राप्त किया।
ऐसा माना जाता है कि हर 100 वर्ष बाद आप योग शक्ति से बाल रूप धारण कर लेते थे। आपके तेज और विद्वता से प्रभावित होकर मुगल शासक शहंशाह का पुत्र दारा शिकोह भी आपका शिष्य बना।
बचपन में ही इन्होंने विभिन्न भाषाओं के ज्ञान के अलावा वेद, उपनिषद और रामायण इत्यादि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए थे। एक बार गऊएं चराते-चराते आपका मिलन महात्माओं की एक टोली से हुआ।
इसके प्रमुख महात्मा अपने पैरों का चूल्हा बनाकर उस पर चावल बना रहे थे। बालक लाल ने जब यह दृश्य देखा तो महात्माओं के चरण स्पर्श किए, जिन्होंने चावलों के तीन दाने प्रसाद रूप में बालक लाल को दिए।
यह प्रसाद ग्रहण करते ही हृदय और मस्तिष्क में अपूर्व ज्योति प्रज्वलित हुई और मोह-माया के तमाम बंधन छूट गए। परमात्मा के मिलन की चाह लेकर बालक लाल दयाल अनजान दिशा की ओर चल पड़ा।
सतगुरु बावा लाल दयाल ने भारत के अनेक तीर्थ स्थलों के दर्शन करने के अलावा अफगानिस्तान और अन्य क्षेत्रों में भी भ्रमण किया। केदारनाथ धाम और हरिद्वार में लंबी तपस्या की। अंतिम चरण में आपने जिला गुरदासपुर के कलानौर कस्बे को अपना डेरा बनाया और नदी किनारे तपस्या करने लगे।
Baba lal dayal ji dhianpur: यहीं आपने कायाकल्प कर 16 वर्षीय बालक का रूप धारण किया। एक बार इनका शिष्य ध्यानदास इन्हें पास ही स्थित एक टीले पर ले गया।
यह स्थान बावा लाल दयाल जी को काफी अच्छा लगा और बाद में ध्यानपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने इसे ही अपना डेरा बना लिया। ध्यानपुर धाम में ही सतगुरु बावा लाल दयाल विक्रमी सम्वत 1712 में ब्रह्मलीन हुए।