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Lala Jagat Narain: युवकों के लिए आदर्श था लाला जगत नारायण का विवाह

Edited By Prachi Sharma,Updated: 16 Jun, 2024 08:25 AM

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जगत नारायण के माता-पिता ने देखा कि जगत नारायण अब पूर्ण रूप से युवा हो चुका है, शिक्षा भी ग्रहण कर चुका है तथा किसी सीमा तक आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो चुका है। अन्य माता-पिता जैसे

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Lala Jagat Naryan: जगत नारायण के माता-पिता ने देखा कि जगत नारायण अब पूर्ण रूप से युवा हो चुका है, शिक्षा भी ग्रहण कर चुका है तथा किसी सीमा तक आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो चुका है। अन्य माता-पिता जैसे सोचते हैं उन्होंने भी सोचा कि क्यों न अब इसे विवाह बंधन में बांध दिया जाए ? गृहस्थी बन कर वह और अधिक व्यस्त तथा घर-परिवार के प्रति अधिक उत्तरदायी हो जाएगा।

वे पुत्र को राष्ट्र वीर व देशभक्त तो बनाना चाहते थे परंतु जेल का कैदी नहीं क्योंकि सामाजिक दृष्टि से जेल जाना अच्छा नहीं समझा जाता था पर बाद में जब जगत नारायण ने राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए बार-बार जेल यात्राएं कीं तो इस संबंध में माता-पिता की धारणा भी बदल गई। उन्हें अब अपने वीर और देशभक्त सुपुत्र पर गर्व था।

जब जगत नारायण 1920 में लाहौर में लॉ की पढ़ाई कर रहे थे तो उनकी माता लाल देवी ने अपने पुत्र का विवाह लाहौर के एक प्रतिष्ठित जज की सुपुत्री से करने की सोची। जज महोदय जगत नारायण की बुद्धि व प्रतिभा से काफी प्रभावित थे। श्रीमती लाल देवी का प्रस्ताव उन्होंने स्वीकार कर लिया। उन्होंने यह प्रस्ताव अपनी ओर से रखा कि वह अपने भावी दामाद को वकालत की उच्च शिक्षा के लिए इंगलैंड भी भेज देंगे। माता लाल देवी बहुत खुश थीं बेटे के स्वर्णिम  भविष्य के बारे में सोच कर।

लेकिन यह खुशी स्थायी नहीं थी क्योकि जज महोदय अंग्रेजियत के रंग में रंगे हुए थे तथा इसी प्रकार उनके बच्चे भी। उनकी अपेक्षा थी कि जगत नारायण भी विदेशी रंग में रंग जाएं जो उन्हें कदापि मंजूर नहीं था। वह अपनी बेटी का हाथ जगत नारायण को थमाने के बदले में यह भी चाहते थे कि जगत नारायण आजादी की लड़ाई से अपना हाथ पीछे हटा लें।

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उन्हें हार्दिक क्षोभ हुआ कि एक व्यक्ति भारतीय होकर भी अपने देश के विरुद्ध इस प्रकार की सोच रख सकता है। उन्हें इतना गुस्सा आया कि जो भी विदेशी वस्तुएं मिलीं लाकर जज महोदय के घर के सामने ढेर लगा दिया तथा आग लगा दी। कोई भी तर्क-वितर्क करने की बजाय उन्होंने अपना उत्तर इस कार्य द्वारा दे दिया कि उनके मन में क्या है और बात बिगड़ गई। सगाई टूट गई।

माता लाल देवी की भावनाओं को ठेस पहुंची परंतु अब वह इसका विकल्प ढूंढने में लग गईं। उन्हें थोड़ा समय तो लगा पर उन्हें विकल्प मिल ही गया। आर्य कन्या विद्यालय में पढ़ रहीं शांति देवी में माता लाल देवी को वे सभी गुण, लक्षण व विशेषताएं मिल गईं जो जगत नारायण की सहधर्मिणी में अपेक्षित थीं। वर्ष था 1924 ! जगत नारायण को अब विवाह बंधन में बांधने के लिए तैयारियां शुरू थीं। लाला मुंशी राम पुरी, जो दसूहा व जालंधर में वकालत करते थे और जिनका देहांत हो चुका था, की सुपुत्री शांति देवी को चुना गया जगत नारायण के लिए। दोनों ही परिवार आर्य समाजी विचारधारा से प्रभावित व संस्कारित थे। अपने नाम के अनुरूप शांति देवी सचमुच शांति का ही रूप थीं। जगत नारायण की राजनीतिक गतिविधियों के बारे में उन्हें जानकारी थी। ऐसे समर्पित व उत्साही युवक को पति रूप में पाकर वह भी गर्वित अनुभव कर रही थीं।

अत्यंत साधारण ढंग से, बिना किसी बनावट या सजावट के जगत नारायण व शांति देवी विवाह सूत्र में बंध गए। जगत नारायण स्वयं किसी भी प्रकार के फालतू दिखावे व दहेज आदि के विरुद्ध थे। उनकी मान्यता थी कि व्यर्थ की फिजूलखर्ची से बचने के लिए शादी दिन में ही संपन्न होनी चाहिए न कि रात में। शगुन मात्र एक रुपया और केवल एक रुपया ही होना चाहिए।

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वह और उनका विवाह एक आदर्श बन गए उस समय के युवकों के लिए। संभवत: यह सादगी व सरलता उन्होंने गांधीवाद से ग्रहण की थी। आगे चल कर उन्होंने अपने पुत्रों (स्वर्गीय) रमेश व श्री विजय चोपड़ा के विवाह भी अपनी इन्हीं मान्यताओं के अनुरूप बिना किसी दहेज आदि के करवाए तथा समाज के सामने एक अनुकरणीय आदर्श रखा। एक विवरण में लाला जी की बहू स्वर्गीय श्रीमती सुदेश (धर्मपत्नी श्री विजय कुमार चोपड़ा) ने बताया था, ‘‘मेरी शादी पर जब उन्होंने दहेज लेने से इंकार कर दिया तो प्रत्येक को लगा कि शादी के बाद वह किसी अन्य बहाने से मांग लेंगे, क्योंकि कुछ ही दिनों बाद मेरी एक ननद की शादी हो रही थी तथा लाला जी स्वयं दहेज की वस्तुओं का प्रबंध करने में लगे हुए थे। मेरे माता-पिता ने भी उतना ही दाज-दहेज का सामान जुटा कर तैयार कर लिया था, पर उन्होंने एक भी वस्तु स्वीकार नहीं की। मैं केवल अपने साथ पांच जोड़े ही लेकर आई, और कुछ भी नहीं।’’

शादी के बाद वर जगत नारायण तथा वधू शांति देवी लायलपुर आ गए। निकट संबंधियों ने अपने घर उन्हें आमंत्रित किया परंतु सबसे पहले वह श्री बोधराज वोहरा के घर गए। शांति देवी घर की महिलाओं से मिली-जुली तथा उनके साथ मिल कर रसोई में भोजन पकाया तथा फिर सभी ने मिलकर खाया। प्रत्येक व्यक्ति श्रीमती शांति देवी के स्वभाव की शिष्टता, विनम्रता, सहजता व सौम्यता से प्रभावित था। नव दम्पति को सभी ने सफल जीवन के लिए शुभकामनाएं व आशीर्वाद दिया।

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1924 में बेटी संतोष, 1926 में बेटे रमेश चंद्र का जन्म हुआ। धीरे-धीरे परिवार बढ़ता गया। 1929 में पुत्री स्वर्णलता तथा 1932 में श्री विजय चोपड़ा का जन्म हुआ। इसके बाद संयोगिता, सुदर्शन, स्वराजलता, स्नेह, सुधा तथा सबसे छोटी बेटी शुभलता का जन्म हुआ। यह एक भरा-पूरा परिवार था। बच्चों में बड़ों के प्रति आदर था तथा बड़े छोटों पर अपना स्नेह व प्यार उंडेलते थे। पारिवारिक मर्यादाओं का पालन होता था। सब एक-दूसरे की इच्छाओं व भावनाओं का सम्मान करते थे तथा पारस्परिक आवश्यकताओं का ध्यान रखते थे। परिवार के पास सांसारिक धन-दौलत चाहे अधिक नहीं थी पर सबके पास प्यार और स्नेह की कोई कमी नहीं थी। एक आदर्श भारतीय परिवार की सभी विशेषताएं यहां विद्यमान थीं।    
 

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