Edited By Prachi Sharma,Updated: 12 Nov, 2024 06:00 AM
भारत-पाक विभाजन की त्रासद घटनाओं के बाद एक नया अध्याय प्रारंभ हुआ लाला जगत नारायण के जीवन में। आकाश-वाणी का संपादन व विरजानंद प्रैस का स्वामित्व वह लाहौर में करते रहे थे।
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Lala Jagat Narain Story: भारत-पाक विभाजन की त्रासद घटनाओं के बाद एक नया अध्याय प्रारंभ हुआ लाला जगत नारायण के जीवन में। आकाश-वाणी का संपादन व विरजानंद प्रैस का स्वामित्व वह लाहौर में करते रहे थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में वह अच्छा अनुभव व व्यापक याति पहले ही अर्जित कर चुके थे।
जालंधर आकर उन्होंने पुन: अपनी ‘कलम’ उठाई पर साधनों का अभाव था। इन चुनौती भरी परिस्थितियों में उन्होंने ‘जय हिन्द’ नामक दैनिक अखबार निकाला, जो विभाजन से पहले लाहौर में श्री वीरेंद्र निकालते थे। वह दिल्ली गए तथा श्री वीरेंद्र के पिता महाशय कृष्ण से मिले तथा पत्र को निकालने की अनुमति प्राप्त कर ली। श्री वीरेंद्र को पार्टनर बना लिया गया। 1924 से लेकर अब तक पत्रकार जगत नारायण ने जो भी लिखा, जब भी लिखा, किसी उद्देश्य के लिए तथा अपने इस सिद्धांत पर वह आयुपर्यंत चलते रहे। अत: अब भी वह उसी पथ पर चले।
संघर्ष का पथ था यह संकटों भरा, चुनौतियों भरा तथा लाला जी इसी संघर्ष पथ के पथिक थे।
पत्रकार रघुवंश राय के शब्दों में :
‘‘लाला जी उस दौर की पैदावार थे, जब राजनीति सत्ता तक नहीं, बल्कि अक्सर जेल के दरवाजे तक ले जाया करती थी और जमानतें जब्त हुआ करती थीं... और पत्रकारिता जब ‘खबर फरोशी’ नहीं ‘सरफरोशी’ हुआ करती थी। यह उस दौर की लेखनी है, जब कलम के सिपाही तलवार की धार पर चला करते थे और ऐसी कलम जुल्म तथा अन्याय के खिलाफ टकराना ही जानती है। यह ता-था-थैया की ताल पर मुजरा नहीं करती...।’’
(पंजाब केसरी, 9.9.1996)
पाकिस्तान से आए हजारों-लाखों लोगों-शरणार्थियों की दशा बड़ी दयनीय थी। जीवन की मूलभूत जरूरतों से वे वंचित थे। सरकारी अधिकारियों का रवैया इनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण होने की बजाय उपेक्षापूर्ण था। सुहृदयी लाला जी भला इसे कैसे सहन कर सकते थे। उन्होंने शरणार्थियों की दुर्दशा पर लेख लिख कर प्रशासन व सरकार का ध्यान आकृष्ट किया।
उस समय की गोपी चंद भार्गव सरकार को अपनी आलोचना सहन न हुई तथा उन्होंने वीरेंद्र पर दबाव बनाया कि वह अपना समाचार पत्र जगत नारायण से वापस ले ले और ऐसा ही हुआ। लाला जी की अनुपस्थिति में ही उनसे यह समाचार पत्र वापस ले लिया गया। सब कुछ अचानक ही हो गया लेकिन इस धीर, वीर और गंभीर पत्रकार ने हिम्मत नहीं हारी।
उसने समझ लिया था कि सिद्धांतों व आदर्शों की लड़ाई उन्हें अकेले ही लड़नी है। उन्होंने दुनिया को यह दिखाना था :
‘‘फूंकों से यह चिराग बुझाया न जाएगा।’’
वह अभी भी पंजाब कांग्रेस कमेटी के महासचिव थे। चाहते तो अपने राजनीतिक प्रभाव का प्रयोग कर ऐसी स्थिति से स्वयं को बचा लेते, परंतु ऐसा नहीं किया। गांधीवादी आदर्श उनके प्रेरणा स्रोत थे। राजनीति को पत्रकारिता की ढाल बनाना उन्हें स्वीकार नहीं था।
1948 में उन्होंने अपना ही उर्दू का पत्र ‘हिन्दू समाचार’ निकालने का निर्णय लिया। साधनों का तो अभाव था ही, परंतु दृढ़ व्रती जगत नारायण अपने शुभ संकल्प के साथ आगे बढ़ते गए। प्रारंभ में उन्होंने इसे अपने दामाद की प्रैस से छपवाया तथा बाद में अपनी प्रैस लगा ली। शरणाॢथयों की दुर्दशा उजागर करते हुए लेख व स पादकीय अब ‘हिन्द समाचार’ में प्रकाशित होने लगे।
वह उस समय अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी व पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी थे। डा. गोपी चंद भार्गव, तत्कालीन मु यमंत्री पंजाब व उनके मंत्रिमंडल के अन्य सहयोगियों ने इन लेखों को लेकर ऊपर शिकायत की, परंतु हुआ शिकायत के विपरीत। कांग्रेस की वर्किंग कमेटी ने पाया कि जगत नारायण बिल्कुल ठीक हैं तथा अपने कर्तव्य का पालन ठीक ढंग से कर रहे हैं। डा. भार्गव को निर्देश दिया गया कि वह अपनी सरकार ठीक ढंग से चलाएं।
सत्तासीन लोगों व जगत नारायण के बीच यह संघर्ष निरंतर आगे बढ़ता रहा।
प्रसिद्ध कवि सारस्वत मोहन मनीषी के शब्दों में :
‘पली है ये पतझड़ की अंधेरी
कोठरी में,
मित्रता स्वयं ही न करती बहार से।
झुकना न जानती है, टूटना ही
जानती है,
मेरी ये कलम नहीं कम है कटार से।’
(‘कलम नहीं बेचेंगे’ कविता संग्रह)
सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रकाशित पत्र व्यवहार से यह स्पष्ट हो जाता है कि पंजाब के तत्कालीन सत्ताधारियों ने जगत नारायण को उनके कर्तव्य पथ से विमुख करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने जितनी बाधाएं खड़ी करनी चाहीं, लाला जी की लौह लेखनी उतनी ही मजबूत होती चली गई। दूरदर्शी लाला जगत नारायण ने अब पंजाब में एक हिंदी समाचार पत्र की आवश्यकता को अनुभव किया। लाला लाजपत राय उनकी श्रद्धा के केंद्र-बिंदु रहे थे। 1965 में उन्होंने ‘पंजाब केसरी’ शीर्षक से हिन्दी में समाचार पत्र निकालने का निर्णय लिया। पत्रकारिता लाला जगत नारायण के लिए एक मिशन थी। वह मानवता के प्रति अपनी संवेदना को कलम के माध्यम से अभिव्यक्त करने के लिए इस क्षेत्र में उतरे थे। जब कोई लेखक नि:स्वार्थ तथा निडर होकर जनहित तथा परहित में अपनी कलम का प्रयोग करता है, तो बड़ी से बड़ी बाधा भी उसके रास्ते में ठहर नहीं पाती। लाला जी ऐसे पत्रकार थे।
‘पंजाब केसरी’ के उप-संपादक व वरिष्ठ पत्रकार घनश्याम पंडित के शब्दों में:
‘‘उनका जीवन संघर्षमय जिंदगी का स्वर्णिम इतिहास है। पूरी जिंदगी उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। चाहे कितनी भी बड़ी विपत्ति आई, लाला जी ने उसका सामना किया। संघर्ष किया परंतु कभी झुके नहीं।’’