Lala Jagat Narain Story:  ...और पंजाब का शेर सो गया

Edited By Prachi Sharma,Updated: 29 Dec, 2024 08:08 AM

lala jagat narain story

और फिर आया 9 सितम्बर, 1981 का वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन, जब इस गांधीवादी, मानवतावादी जननायक को आतंकवादियों की गोलियों का शिकार होना पड़ा। यह दिन उनकी घटनाओं भरी जिंदगी का अंतिम पड़ाव था।

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Lala Jagat Narain Story: और फिर आया 9 सितम्बर, 1981 का वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन, जब इस गांधीवादी, मानवतावादी जननायक को आतंकवादियों की गोलियों का शिकार होना पड़ा। यह दिन उनकी घटनाओं भरी जिंदगी का अंतिम पड़ाव था। जीवन के पहले दो पड़ाव ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’  व ‘असतो मा सद्गमय’ देख चुके संघर्ष-पथ के पथिक का यह तीसरा और अंतिम पड़ाव था ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय।’

इस दिन भी अन्य दिनों की भांति उनकी व्यस्त दिनचर्या थी। जालंधर से लगभग 200 कि.मी. दूर पटियाला में आयोजित एक नेत्र शिविर के समापन समारोह की अध्यक्षता उन्होंने करनी थी। शाम को वापस घर लौटना था। वह दिनचर्या के अनुसार तैयार थे। उनका ड्राइवर सोमनाथ व सुरक्षा कर्मचारी भी जाने के लिए तत्पर थे।
 
आतंकवादियों द्वारा निरंतर उन्हें मिल रही धमकियों को देखते हुए पंजाब सरकार ने उन्हें सुरक्षा प्रदान कर रखी थी, परंतु आज न जाने क्यों उन्होंने सुरक्षा कर्मचारी को साथ नहीं लिया तथा जालंधर से पटियाला की यात्रा पर निकल पड़े। पटियाला में उन्होंने नेत्र शिविर के समापन समारोह की अध्यक्षता की।

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समारोह के बाद लाला जी अपने प्रशंसकों व शुभङ्क्षचतकों से घिरे रहे। बातचीत हो रही थी। ड्राइवर प्रतीक्षारत था कि कब लाला जी इनसे निपटें तथा वापस जालंधर चला जाए। न जाने क्यों आज उसके मन में कुछ अज्ञात आशंकाएं जन्म ले रही थीं। खैर लाला जी अपने प्रशंसकों को छोड़ कर कार की ओर बढ़े। लाला जी के पिछली सीट पर बैठते ही उसने कार का दरवाजा बंद किया। उसे क्या पता था कि इससे लाला जी के जीवन का द्वार भी बंद हो रहा है। लाला जी पिछली सीट से पीठ सटा कर बैठ गए। सिर की टोपी को थोड़ा ठीक किया। दोनों हाथ गोदी में रखे हुए थे। आंखें कुछ बंद थीं।
 
सोमनाथ आशंकित मन से कार चला रहा था। पटियाला से जालंधर जाने वाली सड़क पर कार दौड़ रही थी। सायं हो रही थी। दिन भर की उड़ान के बाद अपने घोंसलों की ओर लौटते पक्षियों की चहचहाहट वातावरण में  थी। लाला जी वैसे तो हमेशा आगे वाली सीट पर ही बैठते थे पर आज वह पिछली सीट  पर आंखें बंद किए विचार मग्न से बैठे थे। अचानक ड्राइवर ने देखा कि तीन अज्ञात मोटरसाइकिल सवारों द्वारा कार का पीछा किया जा रहा है।
पहले उसने इसे अपना भ्रम समझा परन्तु जब उसे यकीन हो गया तो उसने आहिस्ता से लाला जी को सजग करते हुए बताया कि कुछ अज्ञात युवक कार का पीछा कर रहे हैं।
 
लाला जी ने मुस्करा कर उसे आश्वस्त किया, घबराओ नहीं, कुछ नहीं होगा। समय शाम के छ: बजे का था। लुधियाना से जालंधर की ओर जी.टी. रोड पर कादियां के टूरिस्ट बंगले के समीप मोटरसाइकिल पर सवार तीन नवयुवकों ने कार के समीप आकर निकट से लाला जी पर गोलियां चला दीं।
 
सोमनाथ ने कार को वापस मोड़ कर लुधियाना की ओर ले जाना भी चाहा, परंतु सड़क पर मिट्टी के पड़े ढेरों के कारण वह ऐसा न कर पाया। उसे भी गोली लगी तथा घायल हो गया पर लाला जी पर गोलियों के घाव इतने गहरे थे कि वह वहीं पर ही सदा-सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गए। क्या विडम्बना थी कि जीवन भर अहिंसा का अनुसरण करने वाले इस महात्मा का अंत भी  हिंसा  द्वारा ही हुआ। ठीक गांधी की ही तरह।

कुछ समय बाद दो पुलिस के सिपाही घटनास्थल पर पहुंचे। उन्हें कुछ संदेह हुआ। वहां का दृश्य देख कर वे आशंकित थे। उन्होंने हत्यारों का पीछा कर उन्हें पकडऩे की कोशिश भी की। हत्यारों ने भी भागने की कोशिश की। तीनों में से दो तो भागने में सफल हो गए परंतु एक पकड़ा गया। पुलिस वालों ने उससे पूछताछ की तो उसने लाला जी की हत्या में संलिप्त होना मान लिया।

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वह रोडे गांव का रहने वाला नछत्तर सिंह था। पुलिस वालों का ध्यान घायल ड्राइवर की ओर गया। उन्होंने उसकी जान बचाने की सोची। तभी वहां से एक कार गुजर रही थी। उसे रोक कर उन्होंने घायल ड्राइवर को सी.एम.सी. अस्पताल, लुधियाना में भेज दिया। अब तक कुछ और लोग भी घटनास्थल पर हो चुके थे। लाला जी की पहचान हो गई थी। एक व्यक्ति ने अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए निकट ही स्थित एक मिल के कार्यालय से फोन द्वारा हिन्द समाचार पत्र समूह के कार्यालय में यह दु:खद समाचार दे दिया।

लाला जी के बड़े बेटे (स्व.) रमेश ने जैसे ही फोन सुना, सन्नाटा-सा छा गया, सिर घूम गया तथा शरीर पसीने से नहा गया। विश्वास नहीं हो रहा था। सूझ नहीं रहा था कि क्या किया जाए ? क्या कहा जाए ? किस से कहा जाए?  कैसे कहा जाए ? थोड़ा संयम होकर घर की ओर दौड़े तथा अचानक टूटे इस मुसीबत के पहाड़ की सूचना घरवालों को दी। हर सदस्य के लिए यह एक आघात था।
 
हिंद समाचार कार्यालय में सभी इस शोक समाचार से स्तब्ध रह गए। हाथों में कलम जहां थी वहीं रुक गई। कम्पोजिंग वाले हाथ सुन्न हो गए। कैमरा सैक्शन की आंखें अपनी चमक खो बैठीं। सभी की आंखों में आंसू थे तथा हृदय शोक ग्रस्त।

समूचे जालंधर में समाचार जंगल की आग की तरह फैल चुका था। हिन्द समाचार कार्यालय वाली गली में भीड़ बढ़ने लगी। टैलीफोन बार-बार बज रहा था। लोग समाचार की पुष्टि करना चाहते थे। रमेश अपने बेटे अश्विनी व एक-दो अन्य को साथ लेकर घटनास्थल के लिए पहले ही निकल चुके थे। मन रह-रह कर कह रहा था कि शायद यह सच न हो। शायद किसी ने क्रूर मजाक ही किया हो पर घटनास्थल पर पहुंचते ही सभी आशाएं समाप्त हो गईं। सत्य सामने था जिसे स्वीकार करने के सिवाय और कोई चारा नहीं था। लाला जी इस नश्वर देह को त्याग चुके थे।

लाला जी की इस ‘नृशंस हत्या’ से पूरे उत्तरी भारत में रोष की व्यापक लहर दौड़ गई। अगले दिन देश भर के समाचार पत्रों ने इसी दु:खद समाचार व हत्याकांड के बारे में लिखा। विभिन्न राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं,
राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी सहित प्रमुख नेताओं व प्रख्यात पत्रकारों ने इस ‘जघन्य व अमानवीय कृत्य’ की निंदा की। जगह-जगह शोक सभाएं आयोजित हुईं। शोक प्रस्ताव पास किए गए।
 
लाला जी की ‘निर्मम हत्या’ पर पंजाब में पूर्ण हड़ताल रही। कहीं-कहीं रोष भरे प्रदर्शन भी हुए। 10 सितम्बर, 1981 को सायं पांच बजे बल्र्टन पार्क के विशाल मैदान में ‘लाखों सजल नयनों द्वारा लाला जगत नारायण को अंतिम विदा’ दी गई। ‘पंजाब के वीर सपूत’ की ‘राजकीय सम्मान से अंत्येष्टि’ सम्पन्न हुई। इससे पूर्व हिंद समाचार ग्राऊंड से लेकर बल्र्टन पार्क तक हजारों नर-नारी आंखों में आंसू लिए उनके अंतिम दर्शनों के लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे। ‘लाला जी अमर रहें’, ‘जब तक सूरज चांद रहेगा, लाला जी का नाम रहेगा’ के नारों के बीच वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ उनके पार्थिव शरीर को अग्नि दी गई और पंचभूत से निर्मित उनकी मानव देह पंचभूतों में ही विलीन हो गई। वे राष्ट्रीयता, पत्रकारिता व समाज सेवा के एक प्रकाशमान नक्षत्र बन गए।
‘‘प्रेरणा के स्रोत हैं जो, तिमिर से घिरते नहीं।
मृत्यु! मत अभिमान कर, ऐसे मनुज मरते नहीं॥’’

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नश्वर शरीर को अग्नि भले ही जला दे, पर वह जला नहीं सकती दिव्य आत्मा को, व्यक्ति के व्यक्तित्व को, उसके कृतित्व को। और फिर लाला जगत नारायण! वे तो सदा-सदा के लिए अमर हो गए अपने त्याग और बलिदान से। वे तो उन महामानवों की पंक्ति में जा खड़े हुए जो समय की रेत पर अपने पावन पदचिन्ह छोड़ जाते हैं। आने वाली पीढिय़ां श्रद्धा से आत्मविभोर हो जिन्हें सदैव नमन करती हैं।

 

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