Lala Jagat Naryan story: यहां पढ़ें, पारिवारिक जीवन के साथ लाला जगत नारायण ने किस तरह राष्ट्रीय आंदोलन में निभाई सक्रिय भूमिका

Edited By Prachi Sharma,Updated: 03 Jul, 2024 01:34 PM

lala jagat naryan story

पारिवारिक जीवन के साथ-साथ लाला जगत नारायण जी को समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का भी ज्ञान था। उनकी चेतना व्यक्ति या परिवार तक सीमित न होकर जन-जन

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Lala Jagat Naryan story: पारिवारिक जीवन के साथ-साथ लाला जगत नारायण जी को समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का भी ज्ञान था। उनकी चेतना व्यक्ति या परिवार तक सीमित न होकर जन-जन को समर्पित थी। भाई परमानंद ने उन्हें काम करते देखा था। उन्होंने जगत नारायण को अच्छी तरह जान लिया था तथा परख भी लिया था। जगत नारायण की अपने विचारों में स्पष्टता, अपनी बात को कहने का प्रभावशाली ढंग तथा अपनी बात पर अडिग रहने का दृढ़ संकल्प, आने वाले घटनाक्रम का पूर्वाभास तथा उस संबंधी भविष्यवाणी आदि विशेषताओं के मध्यनजर भाई परमानंद ने अपना आकाश वाणी साप्ताहिक पत्र व विरजानंद प्रैस दोनों ही जगत नारायण को सौंपने का निश्चय कर लिया।

आकाश वाणी व विरजानंद प्रैस के अब वह अधिकृत मालिक थे। इनके प्रसार के लिए उनका संघर्ष जारी था परन्तु लाहौर में जो राजनीतिक उथल-पुथलपूर्ण घटनाक्रम घट रहा था, उससे अपने आपको बिल्कुल अलग-थलग रखना अब जगत नारायण के लिए कठिन हो गया था। लाहौर में मोहन लाल रोड पर जगत नारायण उन दिनों रहते थे।

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आकाश वाणी साप्ताहिक का कार्यालय, विरजानंद प्रैस व घर तीनों ही यहीं थे। यही केंद्र था साहित्यिक, राजनीतिक व क्रांतिकारी गतिविधियों की चर्चाओं व योजनाओं का। श्री राम लुभाया चानना (प्रधान, अखिल भारतीय स्वतंत्रता सेनानी संगठन) उन दिनों को याद करते हुए लिखते हैं -

मैं लायलपुर से प्रकाशित होने वाले नौजवान भारत का सम्पादक था। पुलिस हर समय मेरा पीछा करती रहती थी। मुझे लाहौर में एक आवश्यक कार्य करने के लिए भेजा गया था। एक बार मैं जगत नारायण की विरजानंद प्रैस में बैठा था तथा बाहर पुलिस वाले मेरी निगरानी कर रहे थे। मैं परेशान था कि काम कैसे कर पाऊंगा? मैंने लाला जी (जगत नारायण) को अपनी समस्या बतलाई। उन्होंने कहा कि प्रैस के पिछली ओर एक और दरवाजा है। तुम उधर से चले जाओ तथा फिर उधर से ही यहां वापस आ जाना। जब लायलपुर जाना हो तो इसी स्थान से बाहर निकलना, ताकि पुलिस यह समझती रहे कि तुम प्रैस में ही हो। मैंने वैसा ही किया, जैसा उन्होंने कहा था। सच यह है कि उनकी प्रैस स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान थी। (पंजाब केसरी) श्री राम लुभाया चानना व लाला जगत नारायण के आपस में पारिवारिक संबंध थे। श्री चानना को सक्रिय राजनीति में लाने का श्रेय भी जगत नारायण को ही था। श्री चानना उन्हें अपने बड़े भाई के रूप में देखते थे। उन्होंने यह स्वीकार किया कि राजनीतिक क्षेत्र में उनकी जो भी उपलब्धियां रहीं, वे जगत नारायण के कारण ही थीं। जब कभी जगत नारायण को विभिन्न राष्ट्रीय आंदोलनों में भाग लेने के कारण जेल जाना पड़ा, उनकी अनुपस्थिति में श्री राम लुभाया चानना उनके परिवार का ध्यान रखते थे। जगत नारायण की माता जी उन्हें बेटे के समान प्यार करती थीं। एक बार जब अचानक गिर जाने के कारण जगत नारायण के पिता जी को चोट लग गई तब उनकी देखभाल व इलाज करवाने का दायित्व श्री चानना ने ही निभाया क्योंकि जगत नारायण तब जेल में थे।

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जगत नारायण राष्ट्रीय आंदोलन में एक बार फिर सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए तैयार हो रहे थे। उन्हें स्वयं यह अनुभव कर आश्चर्य होता था कि उनकी राजनीतिक चेतना बड़ी ही तीव्र गति से विकसित हो रही थी। 1929 में जब लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तथा उन्हें अपने विद्यार्थी जीवन के प्रिय नेता महात्मा गांधी को देखने का अवसर मिला तो उनके लिए स्वयं को अब और रोक पाना कठिन हो गया तथा विधाता के अज्ञात निर्देश पर वह राजनीतिक युद्ध क्षेत्र में उतर ही पड़े।

1926 में लाला लाजपत राय के स्वराज पार्टी छोड़ देने पर तथा एक स्वतंत्र राष्ट्रीय दल का गठन कर लेने से कांग्रेस को काफी क्षति भी पहुंची। लाला लाजपत राय का कांग्रेस से पूर्णतया मोहभंग हो चुका था। वह अब पंजाब कौंसिल के चुनावों में राष्ट्रवादियों को आगे लाना चाहते थे। उन्होंने लाला दुनी चंद के मुकाबले में श्री टेकचंद को खड़ा कर दिया तथा उनके लिए समर्थन प्राप्त करने के लिए जगत नारायण से सम्पर्क किया। जगत नारायण इस घटना का वृत्तांत देते हुए लिखते हैं -

लाला लाजपत राय मुझसे बहुत प्यार करते थे। उन्होंने मुझे श्री टेकचंद के समर्थन के लिए कहा। मैंने उन्हें कह दिया कि भले ही श्री टेकचंद से हमारे पारिवारिक संबंध हैं तथा वह भी मेरी तरह आर्य समाजी हैं, फिर भी उनका समर्थन करना मेरे लिए कठिन होगा।

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अगले दिन कुछ आर्यसमाजी नेताओं के साथ लाला लाजपत राय फिर मेरे घर पर आए तथा अपनी बात दोहराई। मेरा उत्तर फिर वही था। कांग्रेसी होने के नाते मैं श्री टेकचंद का समर्थन नहीं कर सकता था। मेरे इस व्यवहार से उन्हें बहुत ही दुख और निराशा हुई लेकिन चुनावों के बाद जब मैं उन्हें उनके घर पर मिला तो उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और कहा कि मुझे प्रसन्नता है कि तुम अपनी बात पर डटे रहे। मुझे गर्व है तुमने न कहने का साहस दिखाया। तुम अब मेरे और भी निकट आ गए हो।    

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