Edited By Prachi Sharma,Updated: 24 Sep, 2024 10:48 AM
देश का विभाजन विश्व इतिहास की एक भयंकर त्रासदी साबित हुआ। इसका वर्णन करते हुए लाला जगत नारायण ने लिखा
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Lala Jagat Naryan Story: देश का विभाजन विश्व इतिहास की एक भयंकर त्रासदी साबित हुआ। इसका वर्णन करते हुए लाला जगत नारायण ने लिखा :
‘‘जवाहर लाल नेहरू के लाहौर से वापस जाने के बाद भी नरसंहार व रक्तपात का सिलसिला बिना रोक-टोक के चलता रहा। हिन्दू व सिख काफिलों के रूप में पैदल ही सड़कों पर निकल पड़े। साठ हजार से एक लाख के बीच लोग सड़क पर पैदल चल रहे थे।
रात में उन पर आक्रमण किया गया। नौजवान लड़कियों को जबरदस्ती छीन लिया गया... मैं उस दुख और दर्द को बता नहीं सकता, जो उस समय हिन्दुओं व सिखों के दिल में था... मैंने वे हृदय-विदारक दृश्य अपनी आंखों से देखे... शब्दों में उनका वर्णन नहीं किया जा सकता।’’
दूसरे शरणार्थियों की तरह जगत नारायण व उनके परिवार को भी पलायन करना पड़ा। उनका एक प्रिय साथी श्री हरबंस लाल मरवाहा उनके न चाहने के बावजूद भी उनकी माता, धर्मपत्नी और बेटियों को दो सप्ताह पहले करतारपुर ले आया था।
उसने उन्हें अपने एक रिश्तेदार कृष्ण देव कुमार के घर रखा। जगत नारायण जी तथा उनके दोनों बेटे रमेश और विजय उनके साथ लाहौर में ही रहे। उन्हें आशा थी कि शायद वे वहां से कुछ कीमती सामान लाने में सफल हो जाएं, ताकि नई जगह पर नया जीवन शुरू करने में कुछ सहायता मिल जाए, पर ऐसा नहीं हो पाया। उनके जीवन का यह मध्य काल था। अब उन्हें पुन: एक नई शुरूआत करनी थी। उन जैसे और भी लाखों लोगों की ऐसी ही नियति थी।
4 अगस्त, 1947 को वह दोनों पुत्रों, डा. गोपीचंद भार्गव, स्वर्ण सिंह व अन्य मित्रों के साथ कारों में जालंधर पहुंचे। करतारपुर शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था। 14 दिन हो चुके थे। लाला जी अपने परिवार की कुशलता जानने को उतावले थे। परंतु करें क्या ?
उन्होंने डिप्टी कमिश्नर से संपर्क किया जो कभी लाहौर में मजिस्ट्रेट रह चुके थे। उन्होंने उन्हें करतारपुर जाने की अनुमति प्रदान कर दी। जैसे- तैसे वह जालंधर से करतारपुर पहुंचे। शाम के छ: बज चुके थे। वह डाकखाने में गए। पोस्टमास्टर से मिले। वह भी लाहौर से आया हुआ शरणार्थी ही था। लाला जी को डाकखाने में देख कर वह हैरान हुआ। वह उन्हें जानता व पहचानता था।
जब लाला जी ने उसे बताया कि उनके परिवार ने इस शहर में ही कहीं शरण ले रखी है, पर ठीक पता उन्हें मालूम नहीं। शायद मोहम्मडन मोहल्ला के आसपास कहीं, तो पोस्टमास्टर उन्हें साथ लगते थाने में ले गया क्योंकि शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था। थानेदार तथा पोस्टमास्टर ने लाला जी को साथ लिया तथा स्थानीय कांग्रेसी नेताओं से उनके परिवार के बारे में पूछा तो पता चल गया तथा उन्होंने लाला जी को उनके परिवार से मिला दिया।
लाला जी को लेकर समूचा परिवार चिंता मग्न था। लाहौर में उनके साथ क्या हुआ होगा ? भय, आशंका, चिंता से घिरे हुए थे सब। जैसे ही लाला जी परिवार से मिले, सबकी खुशी का ठिकाना न था।
अब प्रश्न था किसी स्थायी ठिकाने का, पुनर्वास का। अगले ही दिन वे अपने दोनों बेटों रमेश व विजय को साथ लेकर जालंधर गए। वहां के कांग्रेसी नेताओं से मिले पर घर की व्यवस्था न हो सकी। वे सेठ सुदर्शन से मिले और वह उन्हें जालंधर में जी.टी. रोड पर के.पी. बिल्डिंग के साथ स्थित एक बैंक के मैनेजर के पास ले गए जो उनका मित्र था।
मकान की बात हुई तो बैंक मैनेजर ने लाला जी को कहा कि मकान तो अभी मिल जाएगा लेकिन अभी उसमें दो मुसलमान भाई परिवार सहित रह रहे हैं। वे पाकिस्तान जाना चाहते हैं। उनमें से एक जालंधर मुस्लिम लीग का प्रधान भी है। आप उस मकान के बाहर कांग्रेस का झंडा लगा दें और आराम से रहें। मकान के पीछे के भाग में दोनों मुसलमान भाई परिवार सहित रहते रहे। बीच का दरवाजा बंद कर दिया गया। सारी व्यवस्था हो जाने के बाद लाला जी का बड़ा परिवार इन 2-3 कमरों में शिफ्ट कर गया।
इस बीच दोनों मुसलमान परिवार एक दिन चुपके से पाकिस्तान चले गए और लाला जी के परिवार में उनके जाने की खबर तक न लगी। लाला जी ने मोहल्ले के लोगों को इकट्ठा करके उनके सामने ही मकान का वह हिस्सा खोला, जिसमें मुसलमान परिवार रहते थे और उनके कमरे से मिला सारा सामान, जालंधर स्थित इमाम नासिर मस्जिद में जमा करा दिया गया, ताकि शरणार्थियों के काम आ सके।
लाला जी व उनके परिवार ने इन दिनों जो शारीरिक व मानसिक पीड़ा झेली, उस सबका विस्तार से वर्णन नहीं किया जा सकता, केवल उसे महसूस किया जा सकता है क्योंकि:
घायल की गति घायल जाने,
दूजो न जाने कोय।
अर्थ : घायल की गति घायल ही समझ सकता है दूसरा नहीं।
लाला जी के बच्चे स्वतंत्रता संग्राम के दिनों से ही कष्ट भोग रहे थे। अब जो था, जैसा था उसी में गुजारा करने के आदी हो चुके थे।